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कण्ठ से लेकर ओंठ तक सभी ध्वनियों का समावेश है “ॐ” इन्ही ध्वनियों के मेल से बनते हैं “शब्द”

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हिंदू धर्म में ‘ॐ’ का स्थान सर्वोपरि है. माना जाता है कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड से सदा ॐ की ध्वनी निसृत होती रहती है. हमारी और आपके हर श्वास से ॐ की ही ध्वनि निकलती है. यही हमारे-आपके श्वास की गति को नियंत्रित करता है. हिंदू धर्म में सभी मन्त्रों का उच्चारण ऊँ से ही शुरु होता है। किसी देवी-देवता, ग्रह या ईश्वर के मंत्रों के पहले ॐ लगाना आवश्यक होता है, जैसे, श्रीराम का मंत्र – ॐ रामाय नमः, विष्णु का मंत्र – ॐ विष्णवे नमः, शिव का मंत्र – ॐ नमः शिवाय, प्रसिद्ध हैं। माना जाता है कि किसी भी मंत्र से पहले यदि ॐ जोड़ दिया जाए तो वह पूर्णतया शुद्ध और शक्ति-सम्पन्न हो जाता है। ॐ नाम से ही संसार की उत्पत्ति हुई है और ॐ ही सारे संसार का पालनहार है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष ये चारों पुरुषार्थ हमें ॐ से ही मिलाते है। ॐ का जाप बहुत अधिक मायने रखता है। अनेकों साधकों ने ॐ के जाप से लक्ष्यों को प्राप्त किया है।

पहले गुरु महाराज जी की वंदना करेगें, फिर आपको ॐकार के बारे में आपको बतायेगें!

जे गुर चरन रेनु सिर धरहीं। ते जनु सकल बिभव बस करहीं॥
मोहि सम यहु अनुभयउ न दूजें। सबु पायउँ रज पावनि पूजें॥

भावार्थ:-जो लोग गुरु के चरणों की रज को मस्तक पर धारण करते हैं, वे मानो समस्त ऐश्वर्य को अपने वश में कर लेते हैं। इसका अनुभव मेरे समान दूसरे किसी ने नहीं किया। आपकी पवित्र चरण रज की पूजा करके मैंने सब कुछ पा लिया।

सोचने का अर्थ है- भीतर बोलना, सोचना और बोलना दो नहीं है, सोचने के समय में भी हम बोलते हैं, और बोलने के समय में भी हम सोचते हैं, यदि हम साधना के द्वारा निर्विकल्प या निर्विचार अवस्था को प्राप्त करना चाहते हैं, तो हमें शब्द को समझकर उसके चक्रव्यूह को तोड़ना होगा, शब्द उत्पत्तिकाल में सूक्ष्म होता है और बाहर आते-आते स्थूल बन जाता है।

जो सूक्ष्म है वह हमें सुनाई नहीं देता, जो स्थूल है वही हमें सुनाई देता है, ध्वनि विज्ञान के अनुसार दो प्रकार की ध्वनियां होती है-श्रव्य ध्वनि और अश्रव्य ध्वनि, अश्रव्य ध्वनि अर्थात् यह सुनाई नहीं देती, हमारा कान केवल 32470 कंपनों को ही पकड़ सकता है, कम्पन तो अरबों होते हैं किन्तु कान 32470 आवृत्ति के कम्पनों को ही पकड़ सकता है।

यदि हमारा कान सूक्ष्म तरंगों को पकड़ने लग जाए तो आदमी जी नहीं सकता, यह समूचा आकाश ध्वनि तरंगों से प्रकम्पित है, अनन्तकाल से इस आकाश में भाषा-वर्गणा के पुदगल बिखरे पड़े हैं, बोलते समय भाषा वर्गणा के पुदगल निकलते हैं और आकाश में जाकर स्थिर हो जाते हैं, हजारों लाखों वर्षों तक वे उसी रूप में रह जाते हैं।

मनुष्य जो सोचता है, उसके मनोवर्गणा के पुदगल करोड़ों वर्षों तक आकाश में अपनी आकृतियां बनाए रख सकते हैं, यह सारा जगत तरंगों से आंदोलित हैं, विचारों की तरंगे, कर्म की तरंगे, भाषा और शब्द की तरंगे पूरे आकाश में व्याप्त है, मंत्र एक प्रतिरोधात्मक शक्ति है, मंत्र एक कवच है और मंत्र एक महाशक्ति है, शक्तिशाली शब्दों का समुच्चय ही मंत्र है, शब्द में असीम शक्ति होती है।

“नमः शिवाय” महामंत्र में तीन शब्द है, “नमः शिवाय” इसमें पांच अक्षर है, इसे पंचाक्षरी महामंत्र भी कहते हैं, पंचाक्षरी इसलिए कि अक्षरातीत है, नमः शिवाय में पांच अक्षर है जिसको ब्रह्म, प्रणव आदि नामों से भी पुकारा जाता है, उपनिषदों में कहा गया है- “ओम् इति ब्रह्म” ओम् ब्रह्म है।

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पतंजलि योगसूत्र में कहा गया है- “तस्य वाचक प्रणवः” प्रणव ईश्वर का वाचक है, ब्रह्म एक अखण्ड अद्वैत होने पर भी परब्रह्म और शब्द ब्रह्म इन दो विभागों में कल्पित किया गया है, शब्द ब्रह्म को भली भांति जान लेने पर परब्रह्म की प्राप्ति होती है, “शब्द ब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति” शब्द ब्रह्म को जानना और उसे जानकर उसका अतिक्रमण करना यही मुमुक्षु का एकमात्र लक्ष्य है।

जिसे औंकार कहते हैं यही शब्द ब्रह्म है, इस चराचर विश्व के जो वास्तविक आधार हैं, जो अनादि, अनन्त और अद्वितीय हैं, तथा जो सच्चिदानंद स्वरूप है उस निर्गुण निराकार सत्ता को हमारे शास्त्रों ने ब्रह्म की संज्ञा दी है, इसी ब्रह्म का वाचक शब्द ओम है, ब्रह्म इस सृष्टि में निमित्त कारण ही नहीं अपितु उपादान कारण भी है।

प्रारम्भ में एकमात्र ब्रह्म ही थे, उनकी इच्छा हुई “एकोऽहम बहुस्याम” और उन्होंने ही अपने आपको इस जीव जगत के रूप में प्रकट किया, जैसे मकड़ी अपने अन्दर के ही तन्तुओं से जाला बुनती है, अतः यह विश्व-ब्रह्माण्ड ब्रह्म से भिन्न नहीं है, ब्रह्म ही विभिन्न रूपों मे प्रतिभासित हो रहे हैं, अतएव ब्रह्म का वाचक होने के कारण ‘ओम’ ईश्वर अवतार तथा जीव जगत सभी का वाचक हुआ।

इस प्रकार यह शब्द निर्गुण-निराकार ब्रह्म का बोध कराता है तो सगुण-साकार ईश्वर का भी बोध कराता है, स्थूल, सूक्ष्म, कारण तथा महाकारण, जिस रूप में भी ब्रह्म अपने आपको प्रकाशित कर रहा है, ओम उन सब का बोध कराता है,इसकी महिमा में वेदान्त नेति-नेति कहकर मौन हो जाता है, योगीजन इस शब्द की महिमा में गाते-गाते नहीं थकते।

गोरखनाथजी महाराज कहते है-
शब्द ही ताला शब्द ही कूंची, शब्द ही शब्द समाया।
शब्द ही शब्द सूं परचा हुआ, शब्द ही शब्द जगाया।।

यह शब्द “ओम्” है, विश्व के सभी धर्मों में इस शब्द की महिमा गाई गई है, शास्त्रों में वर्णित है कि ओंकार से ही इस विश्व की सृष्टि हुई है, शब्द पद का वैदिक अर्थ है- सूक्ष्म भाव, सूक्ष्म भाव स्थूल पदार्थ का सूक्ष्म रूप है, इन्हीं भावों का आश्रय लेकर सभी स्थूल पदार्थों की सृष्टि होती है, भाव-शब्द ही स्थूल रूपों का जन्मदाता है।

मन में उठने वाला प्रत्येक भाव अथवा मुख से उच्चरित होने वाला प्रत्येक शब्द विशेष-विशेष कंपन मात्र हैं, इन कम्पनों में खास-खास आकृति बनाने की क्षमता रहती है, उच्चारण के साथ ही आकृति बन जाती है, अतः किसी भी स्थूल पदार्थ की सृष्टि होने से पूर्व उससे सम्बन्धित भाव विद्यमान रहता है, और वही भाव स्थूलाकार में परिणत हो जाता है, सारी सृष्टि के लिए यही नियम लागू होता है।

विभिन्न प्रकार के भावों या शब्दों से ही इस विचित्र बहुरूपात्मक विश्व की सृष्टि हुई है, विश्व निर्माणकारी ये सभी भाव एक ही शब्द अथवा भाव से निःसृत हुए हैं, और वह शब्द है “ओम”, “ओम्” सभी भावों की समष्टि है, अब प्रश्न उठता है कि इसका क्या प्रमाण है कि विश्व निर्माणकारी सभी भाव ‘ओम’ से ही निःसृत हुए हैं, इसका सबसे बड़ा प्रमाण है- ब्रह्मज्ञ पुरुषों की प्रत्यक्ष अनुभूति।

ब्रह्मज्ञ पुरुषों को समाधि की अवस्था में अनुभव होता है कि जगत् शब्दमय है, और फिर वह शब्द गंभीर ओंकार ध्वनि में लीन हो जाता है, विभिन्न स्थितियां इस प्रकार वर्णित करते हैं, योगीजनों के ‘घर्र-घर्र की आवाज, घंटा, वीणा की आवाज, सारेगम प द नी सा के स्वरों की आवाज, शंख ध्वनि, इसके पश्चात् कार की ध्वनि, फिर उसके बाद कोई स्वर नहीं।

शब्दातीत स्थिति को अनादि नाद कहकर पुकारते हैं, यहां जाकर मन प्रत्यक्ष ब्रह्म में लीन हो जाता है, सब निर्वाक, स्थिर, समाधि से लौटते वक्त भी जब पहली अनुभूति होती है तो ओंकार शब्द ही सुनाई पड़ता है, यह अनुभूतिजन्य विवरण सभी ब्रह्मज्ञ पुरुषों का एक सा ही है।

‘ओउम् ’ शब्द पूर्ण शब्द है, ओम् में अ, उ, म तीन अक्षर हैं, इन तीन ध्वनियों के मेल से ‘ओउम’ बनता है, इसका प्रथम अक्षर ‘अ’ सभी शब्दों का मूल है, चाहे शब्द किसी भी भाषा का हो, ‘अ’ जिव्हा मूल अर्थात् कण्ठ से उत्पन्न होता है, ‘म’ ओठों की अन्तिम ध्वनि है, ‘उ’ कण्ठ से प्रारम्भ होकर मुंह भर में लुढ़कता हुआ ओठों में प्रकट होता है।

इस प्रकार ओउम् शब्द के द्वारा शब्दोच्चारण की सम्पूर्ण क्रिया प्रकट हो जाती है, अतः हम कह सकते हैं कि कण्ठ से लेकर ओंठ तक जितनी भी प्रकार की ध्वनियां उत्पन्न हो सकती है, ओउम में उन सभी ध्वनियों का समावेश है, फिर इन्ही ध्वनियों के मेल से शब्द बनते हैं, अतः ओम् शब्दों की समष्टि है, अब संक्षेप में ओंकार की रचना भी समझनी जरूरी है।

तन्मात्रा में ऊर्जा के विभिन्न स्वरूप
भारतीय सनातन धर्म की प्रकृति में पंचमहाभूतों की श्रेणी या शृंखला मानी जाती है। यह पंचमहाभूत विशेष ऊर्जा स्रोत कहलाते हैं। जिसमें अग्नि, वायु, आकाश, जल, पृथ्वी ये पांच समाहित होते हैं। इनमें ऊर्जा है। अर्थात जल से जीवन, अग्नि से संकल्प, वायु से क्रियाविधि, आकाश से सुरक्षा और पृथ्वी पर विचरण। मांडूक्य उपनिषद में तन्मात्रा के बारे में बहुत कुछ कहा गया है। व्यापक तौर पर कहा जा सकता है तन्मात्रा सर्व चेतना का पुंज है, जिसके माध्यम से प्रकृति, प्राणी, मानव और जीवन से संबंधित समस्त क्षेत्र को ऊर्जावान करते हैं। तन्मात्रा विशेषकर ओमकार में निहित है जिसमें अकार, उकार, मकार यह तीन मात्रा है। अलग-अलग गुण के साथ-साथ शक्ति का प्रतिनिधित्व करती हैं। वेद-उपनिषद भी शक्ति और ऊर्जा की चर्चा करते हैं।

शक्तिशाली ओम
यजुर्वेद में कहा गया है, “ओम स्वयं ब्रह्म” अर्थात् ओम ही सर्वत्र व्यापक परम ब्रह्म है। ओंकार शब्द तीन गुणों का प्रतिनिधित्व प्रदान करते हैं, जिसमें सात्विक, राजसी, तामसी यह तीनों गुण क्रमश: अकार, उकार, मकार से संबंधित हैं। कहा जा सकता है यह क्रमश: ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र एवं महाकाली, महालक्ष्मी और सरस्वती से संबद्ध है। ओम इत्येतत् अक्षर: अर्थात् ओम अविनाश, अव्यय एवं क्षरण रहित है।

शास्त्रों में ओम
ओम पवित्र ध्वनि है। इसका उच्चारण करते समय तीन अक्षरों की ध्वनि निकलती है। ये तीन अक्षर अ+उ+म हैं। इन तीनों अक्षरों में त्रिदेव यानी (ब्रह्मा,विष्णु,महेश) का साक्षात वास माना जाता है। मांडूक्य उपनिषद में कहा गया है संसार में भूत, भविष्य और वर्तमान में एवं इनसे भी परे जो हमेशा हर जगह मौजूद है, वो ओम है। यानी इस ब्रह्माण्ड में हमेशा से था, है और रहेगा। खगोलविद् मानते हैं कि ब्रह्माण्ड में ओम सुनाई देता है। ओम में ही ब्रह्माण्ड का रहस्य समाया हुआ है।

संपूर्ण सृष्टि का प्रतीक
ओम को संपूर्ण सृष्टि का प्रतीक माना गया है। इसके उच्चारण मात्र से ही जीवन से नकारात्मकता खत्म होती जाती है। मन में भीतर से शांति रहती है। गीता में कहा गया है किसी भी मंत्र से पहले ओम के उच्चारण से पुण्य मिलता है। कठोपनिषद की बात करें, तो इसमें बताया गया है कि ओम शब्द में वेदों और तपस्वियों का सार समाया हुआ है। कठोपनिषद कृष्ण यजुर्वेदीय शाखा के अंतर्गत एक उपनिषद है।

ओंकार चेतना है
महर्षि पतंजलि के ग्रंथ योगदर्शन के 27वें सूत्र में कहा गया है, “तस्य वाचक प्रणव:” ईश्वर शब्द का बोध करने वाला शब्द ओम है। ओंकार सिर्फ शब्द ही नहीं भीतर की ऊर्जा को प्रकट करने का साहस भी है। यह चेतना भी है, संकल्प भी है। यह प्रसन्नता का सूत्र सोपान भी है। यह सफलता को देने वाली ऊर्जा भी है। जीवन में अनुकूलता के साथ आगे बढ़ाने की जीवित चेतना या जीवटता इससे संबद्ध होती है।

ओम से सेहत
ओम का जाप करते हैं, तो चिंता और तनाव दूर होता है। कई शोधों में यह साबित हो चुका है कि ओम का जाप तनाव के स्तर को कम करता है। इसके नियमित अभ्यास करने से आप खुद को शांत और तरोताजा महसूस करते हैं। वातावरण सकारात्मक होता है।

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