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एक भक्त राजा एक महात्मा की पर्णकुटी पर जाया करते थे। एक बार राजा ने महात्मा को अपने महलोँ में पधारने के लिये कहा। पर महात्मा ने राजा को यह कहकर टाल दिया कि ‘मुझे तुम्हारे महलो में बड़ी दुर्गन्ध आती है, इसलिये मैँ नहीँ आता।’
राजा को बड़ा अचरज हुआ। मन ही मन सोचा -‘महलो में तो इत्र-फुलेल छिड़का रहता है, वहाँ दुर्गन्ध का कया काम। महात्मा जी कैसे कहते हैं, पता नही। राजा ने संकोच से फिर कुछ नही कहा।
एक दिन महात्मा राजा को साथ लेकर घूमने निकले। घूमते घूमते दोनों चमारों की बस्ती में पहुँच गये और वहाँ एक पीपल वृक्ष की छायां में खड़े हो गये। चमारों के घरों में कहीं चमड़ा कमाया जा रहा था, कही चमड़ा सूख रहा था तो कहीं ताजा चमड़ा तैयार किया जा रहा था। हर घर में चमड़ा था और उसमे से बड़ी दुर्गन्ध आ रही थी। हवा भी इधर की थी। दुर्गन्ध के मारे राजा की नाक फट रही थी। राजा ने महात्मा से कहा-‘भगवन! दुर्गन्ध के मारे खड़ा नही रहा जाता-जल्दी चलिये।’
महात्मा बोले-‘तुम्ही को दुर्गन्ध आती है ? देखो चमारो के घरों की ओर, कितने पुरुष, स्त्रियाँ ओर बाल बच्चे हैं। कोई काम कर रहे हैं कोई खा-पी रहे हैं, सब हँस खेल रहे हैं। इनको तो दुर्गन्ध नही आती, फिर तुम्ही को क्यों आने लगी ?
राजा ने कहा-‘भगवन! चमड़ा कमाते कमाते तथा चमड़े में रहते रहते इनका अभ्यास हो गया है। इनकी नाक ऐसी ही हो गयी है कि इन्हे चमड़े की दुर्गन्ध नही आती, पर मैँ तो इसका अभ्यासी नहीँ हूँ। जल्दी चलिये- अब तो एक क्षण भी यहाँ नहीँ ठहरा जाता।’
महात्मा ने हँसकर कहा-राजन ! यही हाल तुम्हारे राजमहल का भी है। विषय-भोगो में रहते-रहते तुम्हे उनमें दुर्गन्ध नही आती, बल्कि तुम्हारा भी अभ्यास हो गया है, पर मुझको तो विषय देखते ही उल्टी सी आ जाती है। इसीलिये मैं राजमहल मे नही जाता। राजा को रहस्य समझ में आ गया। महात्मा हँसकर राजा को साथ लिये वहाँ से चल दिये।
विशेष:- आध्यात्मिक जीवन ही सर्वश्रेष्ठ माना जाता है क्योंकि इस जीवन में तामसिक प्रवृत्तियों को नियंत्रित किया जा सकता है जबकि विषय भोगों से जीवन में शुभता चली जाती है और नकारात्मक ऊर्जा का प्रभाव बढ़ता है।