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एक दौर का गुज़र जाना “वो भी क्या दिन थे – आज के मल्टीप्लेक्स के दौर में, आज के युवा कैसे जानेंगे, समझेंगे या मानेंगे, कि सिंगल-थिएटर सिनेमा हॉल में जाना ही एक अलग व अद्भुत अनुभव होता था – वाकई, “वो भी क्या दिन थे”!
अभी कुछ दिन पहले ही दिल्ली के कनॉट प्लेस पर मौजूद मशहूर रीगल सिनेमा हमेशा के लिए बंद कर दिया गया। साल 1932 में बनकर तैयार हुआ रीगल सिनेमा जाने कितनी ही कहानियों का गवाह रहा है। चलिए, कुछ कहानियां आज मैं भी आपको बताता हूं। दिल्ली में एक दौर वो था जब रीगल सिनेमा के सामने सबकुछ फीका लगता था। 1950 के दौर में दिल्ली के कई इलाके तो ऐसे थे जहां तांगे वाले “एक सवारी रीगल। एक सवारी कनॉट प्लेस” की आवाज़ें लगाते सुनाई दे जाते थे।
जबकी पड़ोस में और भी कुछ सिनेमा हॉल थे। जैसे रिवोली, प्लाज़ा व ऑडियन। लेकिन ज़्यादातर सवारियों की मंज़िल रीगल सिनेमा ही हुआ करता था। जब 70 का दौर आया तब दिल्ली में फट फट गाड़ियां चलने लगी थी। उस वक्त फट फट गाड़ियां पालिका बाज़ार में खड़ी मिलती थी। और उनके ड्राइवर ‘रीगल रीगल’ चिल्लाते रहते थे। अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि रीगल का जलवा वहां मौजूद दूसरे सिनेमाघरों से कितना ज़्यादा था।
जब मीना कुमारी व धर्मेंद्र की फिल्म फूल और पत्थर रिलीज़ हुई थी तब वो दोनों भी रीगल सिनेमा आए थे। फूल और पत्थर की सिल्वर जुबली रीगल में मनी थी। इसी तरह साल 1969 में जब अराधना फिल्म रिलीज़ हुई थी तब राजेश खन्ना भी दिल्ली आए थे। जबकी रीगल में अराधना का प्रीमियर था ही नहीं। राजेश खन्ना के कहने पर रिवोली में अराधना का प्रीमियर रखा गया था। लेकिन जब वो कार से रिवोली की तरफ आ रहे थे तब ड्राइवर ने रीगल सिनेमा के बाहर तगड़ी भीड़ देखी।
ड्राइवर को लगा कि जैसे यही रिवोली सिनेमा है। राजेश खन्ना भी अपनी गाड़ी से उतर गए। लेकिन जैसे ही उन्होंने सामने की तरफ देखा, उन्हें आभाष हो गया कि वो गलत जगह आ गए हैं। राजेश खन्ना को रीलग पर देखकर भीड़ उनकी तरफ दौड़ी। राजेश खन्ना फौरन अपनी गाड़ी में वापस बैठे और वहां से निकल लिए। क्योंकि अगर वो गलती से भी उस भीड़ में फंस जाते तो वहां से निकलने में उन्हें जाने कितना समय लग जाता।
रीगल उन चंद सिनेमाघरों में से एक था जहां पैरलल सिनेमा भी दिखाया जाता था। इसलिए पैरलल सिनेमा के डायरेक्टर्स, खासतौर पर श्याम बेनेगल के लिए रीगल सिनेमा बहुत अहम था। पैरलल सिनेमा दिखाने के लिए जल्दी से कोई सिनेमाघर तैयार नहीं होता था। लेकिन रीगल ने मंथन, अंकुर, निशांत व और जाने कितनी ही पैरलल फिल्में दिखाई थी। और इस वजह से रीगल सिनेमा की खूब तारीफें भी हुआ करती थी।
राज कपूर भी रीगल सिनेमा खूब आते थे। आस-पास के कई पुराने लोग दावा करते हैं कि वो राज कपूर से कई दफा रीगल पर मिले थे। एक दफा राज कपूर की कोई फिल्म रिलीज़ हुई थी जो रीगल में दिखाई जा रही थी। तब उनके पिता पृथ्वीराज कपूर दिल्ली में ही थे। उन दिनों पृथ्वीराज कपूर राज्य सभा सदस्य थे। वो भी अपने बेटे की फिल्म देखने रीगल आए। किसी ने पृथ्वीराज कपूर को देखकर कहा,”वो देखो आवारा का बाप।” उन्होंने ये बात सुन ली। और फिर पीछे मुड़कर उस ऐसा कहने वाले को डांटते हुए चुप रहने को कहा।
पृथ्वीराज कपूर को अच्छा नहीं लगता था कि कोई उन्हें आवारा का बाप कहे। वो कहते थे कि उनके बेटे का नाम राज कपूर है। और राज कपूर कोई आवारा नहीं है। उसकी फिल्म का नाम है आवारा। बॉम्बे में भी वो इसी बात पर एक आदमी को चांटा मार चुके थे। सालों बाद पृथ्वीराज कपूर के छोटे बेटे शशि कपूर की फिल्म सत्यम शिवम सुंदरम का प्रीमियर भी रीगल में हुआ। शशि अपनी हीरोइन ज़ीनत अमान के साथ रीगल पहुंचे तो उन पर गेंदे के फूलों की बारिश हो रही थी।
इस दौरान किसी ने ज़ीनत अमान को चकोटी काट ली। ज़ीनत गुस्से में पीछे मुड़ी और चकोटी काटने वाले को चिल्लाते हुएं ढूंढने लगी। लेकिन कोई हाथ नहीं आया। शशि कपूर भी इस हरकत से गुस्सा हो गए। उन्होंने भीड़ से कहा कि कंट्रोल में रहें, नहीं तो हम लोग चले जाएंगे। तभी वहां दिल्ली पुलिस पहुंच गई। पुलिस ने बिना टिकट भीड़ लगाए लोगों को वहां से भगाया। ये लोग सड़क के दूसरी तरफ मौजूद हरी घास के इलाके की तरफ चले गए। और वहां से तालियां बजाने लगे।
रीगल वो सिनेमाघर था जहां देश की राजनीति के कई बड़े और नामी चेहरे भी फिल्म देखने आए थे। इनमें आखिरी वायसराय माउंटबेटन, भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित नेहरू, भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद, इंदिरा गांधी व कई अन्य राजनेता भी रीगल सिनेमा में फिल्में देख चुके हैं।