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अतीत के झरोखों से जबलपुर के चलचित्र गृह

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आपातकाल हटने के बाद, सन १९७८ मे, मोहनलाल हरगोविंददास समूह (पटेल परिवार) के ‘शीला’ टॉकीज ने जबलपुर में दमदार एंट्री ली और ज्योति टॉकीज का ‘महारानी’ वाला स्थान जाता रहा. शीला टॉकीज यह जबलपुर की पहली 70 mm पर्दे वाली और स्टीरियोफोनिक साउंड वाली टॉकीज थी. शोले में ये दोनों खूबियाँ थी, लेकिन तब जबलपुर में इसकी सुविधा न होने के कारण हम ने 35 mm में ही शोले देखी.

देवानन्द के ‘देस परदेस’ इस पिक्चर से शीला का उद्घाटन हुआ था. टीना मुनीम (अंबानी) की यह पहली फिल्म थी. शीला में यह दस बारह हफ्ते चल सकी. शीला में कई अच्छी मूवीज देखी हैं. अपर्णा सेन की नितांत सुंदर मूवी ‘३६, चौरंगी लेन’ मैंने शीला में ही देखी थी. अमोल पालेकर की ‘रंग बिरंगी’, स्मिता पाटिल – शबाना आजमी की ‘मंडी’ ऐसी मूवीज यही देखी थी. उन दिनों शीला में रविवार को, सुबह के शो में अच्छे अंग्रेजी पिक्चर लगते थे. द्वितीय विश्व युध्द पर बनी ‘द डर्टी ड़झन’ और बाद में ‘स्टार वार्स’, शीला के ही 70 एमएम पर्दे पर देखी थी.

शीला प्रारंभ होने के एक वर्ष बाद ही, अर्थात १९७९ में, चौथे पुल के पास पायल टॉकीज प्रारंभ हुई. इस टॉकीज का उद्घाटन किया धर्मेन्द्र और रेखा के ‘कर्तव्य’ मूवी ने. ‘ऑल टाइम ग्रेट’ की श्रेणी में आने वाली ‘जाने भी यारो’ भी पायल में ही लगी थी.

सत्तर के दशक की, तरल और साफ सुथरी फिल्मे अक्सर श्रीकृष्णा और विनीत में लगती थी. ‘रजनीगंधा’ श्रीकृष्णा में लगी थी. तो गोलमाल, चश्मेबद्दूर, कथा ये सब विनीत में देखी थी. श्रीकृष्णा टॉकीज का भाग्य कुछ अच्छा था, की उसे लंबी चलने वाली पिक्चर मिल जाती थी. बॉबी और शोले, ये दो बड़े उदाहरण हैं. राजेन्द्र कुमार के बेटे की ‘लव स्टोरी’ भी श्रीकृष्णा में ही लगी थी.

लंबी पिक्चर चलने का भाग्य, सुभाष टॉकीज को भी मिला था, एक बार. मिलौनीगंज में बनी ये सुभाष टॉकीज, नई फिल्मे जरूर लगाता था, पर एकदम ‘ए’ श्रेणी की नहीं. ज़्यादातर फिल्मे पौराणिक रहती थी. वही पर लगी थी – ‘जय संतोषी माँ’. इस मूवी ने तो अनेक कीर्तिमान बनाएं. माताएं / बहने टॉकीज के अंदर ही संतोषी माता की पूजा करना आरंभ कर देती थी. विनोद खन्ना – कबीर बेदी – मौसमी चटर्जी की ‘कच्चे धागे’, सुभाष में देखी थी. उन दिनों होली जलने वाली रात को रतजगा रहता था. मैंने उसी रात को सुभाष में मनोज कुमार की ‘बेईमान’ देखी थी. इसे सात अवार्ड मिले थे.

जबलपुर के सिनेजगत की यदि कोई पहचान देश में हैं, तो वह हैं, एंपायर टॉकीज. सर्किट हाउस नंबर १ के सामने वाली. किसी जमाने में अंग्रेजी संस्कृति की याद दिलाती हुई यह टॉकीज, बहुत पुरानी हैं. अंग्रेजों के समय में नाटक खेलने और सिनेमा देखने के लिए बनाई गई. इसलिए इस टॉकीज में दर्शकों को बैठने के लिए ‘बॉक्स’ की व्यवस्था भी थी. प्रेमनाथ का बचपन जबलपुर में बीता. वे अपने बचपन में, यहां मूवी देखने आया करते थे. सन १९५१ में उन्होने इस टॉकीज को खरीद लिया. इसका रिनोवेशन किया और १९५२ के प्रारंभ में पहली मूवी, जो इस टॉकीज में लगाई, वो उन्ही की थी – ‘बादल’. मधुबाला के साथ बनी इस फिल्म में शंकर जयकिशन ने कुछ यादगार गाने दिये हैं. (ऐ दिल ना मुझसे छुपा – लता, मुकेश; उनसे प्यार हो गया, दिल मेरा खो गया… – लता). प्रेमनाथ यह ऋषि कपूर के मामा हुए. दो वर्ष पहले प्रकाशित अपनी आत्मकथा ‘खुल्लम खुल्ला’ में ऋषि कपूर ने लिखा हैं की ‘वे सब भाई बहन छुट्टियों में अपने ननिहाल, जबलपुर में आते थे, और एंपायर टॉकीज में मूवी देखते थे’.

अनेक आर्मी अफसर एंपायर में मूवी देखने आते थे. इसलिए इसका रखरखाव, बाकी की अपेक्षा अच्छा रहता था. फिल्मों का चुनाव भी अच्छा होता था. तब दो टॉकीज केवल अंग्रेजी मूवी ही दिखाते थे. डिलाइट और एंपायर. ‘एयरपोर्ट – 75’ मैंने एंपायर में देखी थी. लेकिन बाद में एंपायर ने हिन्दी मूवीज भी दिखाना प्रारंभ किया. राजश्री की अधिकतर फिल्मे एंपायर में लगती थी. १९७८ – ७९ में यहां ‘अखियों के झरोखों से’ खूब चली थी. अमोल पालेकर – ज़रीना वहाब – श्रीराम लागू की घरौंदा भी यहां देखी थी. ‘दुल्हन वहीं जो पिया मन भाये’ के बारे में क्या कहने…? वो तो साक्षात प्रेमनाथ के पुत्र प्रेमकिशन की थी. एंपायर में वो सौ दिन से ज्यादा चली थी.

शीला और पायल टॉकीज के शुरुआती दौर में बल्देवबाग में एक टॉकीज खुली – सावित्री. इसमे लगी पहली फिल्म थी – रेखा और राजकुमार की ‘कर्मयोगी’. ये दौर जबलपुर के टॉकीजों का सर्वोच्च दौर था. लगभग २२ टॉकीज हो गए थे, अपने शहर में. अस्सी के दशक के अंत तक दो चार को छोडकर बाकी टॉकीज तो फिर भी चल रहे थे. पर तब तक दूरदर्शन पर रविवार को फिल्म आना आम बात हो गई थी. विडियो पायरसी भी उन दिनों चरम पर थी.

इन सब की परिणीती टॉकीज बंद होने में थी. बीच के दस – पंद्रह वर्ष यह संक्रमण काल (transition period) था. सिंगल स्क्रीन की हालत खराब थी और मल्टी स्क्रीन मॉल, जबलपुर जैसे शहरों में आना शेष थे. संक्रमण के इस दौर में राजश्री के ‘हम आपके हैं कौन’ और ‘हम साथ साथ हैं’ ने जबलपुर के सिनेजगत को, विशेषतः प्रभु-वंदना को, कुछ दिलासा दिया. पर इक्कीसवी सदी में मल्टी स्क्रीन ने ज़ोर पकड़ा, तो सिंगल स्क्रीन का वो जमाना जाता रहा. अपने जबलपुर में ज्योति और शारदा टॉकीज ने बहुत देर तक इस परिस्थिति का सामना किया. अब ज्योति के स्थान पर एक बड़ा मल्टीप्लेक्स बन रहा हैं और शारदा ने सिंगल स्क्रीन को ही रिनोवेट कर, री-लॉंच किया हैं.

बहुत कुछ बदला हैं… नहीं बदली हैं, उन सुनहरे दिनों की अनमोल स्मृतियाँ, जब सिनेमा देखना एक उत्सव होता था, जब लंबी लाइन में लगकर, पसीने से तरबतर होकर, टिकट मिलने का आनंद चेहरे पर झलकता था, जब टॉकीज के अंदर, उन पंखों की आवाज मे, मूँगफली खाते हुए, सामने के विशाल पर्दे पर राजेश खन्ना, धर्मेन्द्र, अमिताभ को देखकर हम पागल हो जाया करते थे…!
– प्रशांत पोळ – जबलपुर

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