छोड़कर सामग्री पर जाएँ

वाचिक परंपरा क्या है, गुरुकुल में किस प्रकार शिष्य ज्ञान अर्जित करते थे ?

टैग्स:
इस ख़बर को शेयर करें:

उपनिषद् को वेदांत भी कहा जाता है. वेदांत अर्थात् वेदों का अंत। दरअसल वेदों के अध्ययन के दौरान उपनिषद् का क्रम सबसे अंत में आता है। सबसे पहले संहिता पढ़ाई जाती है। उसके बाद ब्राह्मण आते हैं। इसके बाद आरण्यक और सबसे अंत में उपनिषद्।

उपनिषद् कब लिखे गए, इसके बारे में काफी बहस हुई है। लोकमान्य तिलक के हिसाब से ये 3000 से 200 ई. पू. में रचे गए। जर्मन स्कॉलर मैक्स मूलर के हिसाब से ये 1000 से 800 ई. पू. के बीच रचे गए। डॉ. राधाकृष्णन का कहना था कि 800 से 600 ई. पू. के बीच इन्हें रचा गया। बहरहाल कई भाषा वैज्ञानिक इन्हें 1000 ई. पू. से ज्यादा पुराना नहीं मानते हैं।

उपनिषदों की कुल संख्या 200 बताई जाती है। शंकराचार्य के समय 108 उपनिषद् का जिक्र मिलता है। इनमें से 13 उपनिषद् मुख्य माने गए हैं। शंकराचार्य ने इनमें से 10 का भाष्य लिखा था. ये थे ईश, ऐतरेय, कठ, केन, छांदोग्य, प्रश्न, तैत्तिरीय, बृहदारण्यक, मांडूक्य और मुंडक।

108 उपनिषदों को कई तरह से बांटा गया है। इसमें सबसे प्रचलित वर्गीकरण वेदों से जोड़ कर किया गया है। ऋग्वेदीय उपनिषदों की संख्या 10 बताई जाती है। यजुर्वेद से जुड़े हुए उपनिषद् दो भागों में बांटा गया है। पहला है शुक्ल यजुर्वेदीय जसके तहत 19 और कृष्ण यजुर्वेदीय के तहत 32 उपनिषद् रखे गए हैं। सामवेद से जुड़े 16 उपनिषद् हैं और अथर्ववेद से जुड़े कुल 31 उपनिषद् हैं। इसमें से कुछ गद्य हैं और कुछ पद्य हैं।

“ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत्”

सब सुखी हों, सब निरोग रहें। सब अच्छी घटनाओं को देखने वाले अर्थात् साक्षी रहें और कभी किसी को दुःख का भागी न बनना पड़े।

यह श्लोक वृहदारण्यक उपनिषद् में से लिया गया है। उपनिषद् का अर्थ है पास में बैठना। जब कागज नहीं बना था और प्रिंटिंग की भी शुरुआत नहीं हुई थी, उस समय भी लोग पढ़ते थे। इसे वाचिक परंपरा कहा जाता है। अर्थात् गुरु जो ज्ञान अपने पास बैठा कर देता था, उसे वैसे ही याद कर लेना होता था। अगले दिन इसे जुबानी सुनाना पड़ता था। तो उपनिषद् का अर्थ हुआ गुरु के समीप बैठ कर लिया गया ज्ञान।

गुरुकुल परंपरा हमारी प्राचीन शिक्षा पद्धति है जिसमें वेदों साहित्य पुराणों और प्राचीन ग्रंथो का अध्ययन कराया जाता है आधुनिक गुरुकुल में भी इसी शिक्षा पद्धति के साथ विज्ञान इतिहास दर्शन योग की भी शिक्षा दी जाती है। इसके विपरीत विद्यालय परंपरा अंग्रेजों के शासनकाल में शुरू हुई विद्यालयों में मैकाले की शिक्षा नीति के अनुसार पढ़ाया जाता है इसमें शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी व हिंदी दोनों का होता है।
संबंधित

गुरुकुल और स्कूल में क्या अंतर होता है ?
पहले ज़माने में स्कूल तो होते नहीं थे इसलिए लोग अपने बच्चो को शिक्षा के लिए गुरुकुलों में भेजा करते थे गुरुकुल के नियम बहुत कठोर होते थे गुरुकुल के आचार्य अपने शिष्यों को गुरुकुल में ही रखते थे गुरुकुल में अनुसासन बहुत जरुरी होता है गुरुकुल में अनुसासन के साथ साथ सुबह जल्दी उठना दैनिक किर्याओ से निर्व्रत होकर अध्यात्म फिर हवन होता था रोजाना उसके बाद गुरुकुल के प्राचार्य अपने शिष्यों को संस्कारी शिक्षा देते थे युद्ध अभ्यास शास्त्र विधा ,सस्त्र विधा सिखाते थे। गुरुकुलों में हमेशा सात्विक भोजन मिलता है। वहा आप कोई महासाहार भोजन नहीं खा सकते है वहा का वातावरण एकदम शुद्ध होता है सभी शिष्य अपने आचार्य का कहना मानते है। आचार्य का आदेश अंतिम आदेश होता था।

इसके विपरीत स्कूलों में इतना कठोर अनुसासन नहीं होता न ही हवन आदि होते न ही आजकल बच्चे अपने अध्यापको को इतना आदर सम्मान है एक टाइम है जो पूरा हुआ और छुट्टी कोई पढ़े तो ठीक न पढ़े तो ठीक उन्हें तो अपनी तनखाह से मतलब होता है जबकि गुरुकुल में शिष्य को योग्य बनाया वह जीवन के मूलमंत्र सिखाये जाते थे। स्कूलों में कम ही देखने को मिलते है गुरुकुल को सबसे अच्छा नियम था ब्रहमचर्य का पालन करना वो स्कूलों में कहा है। और बहुत सी बाते है। मेरे अनुसार गुरुकुल श्रेष्ठ है।

गुरु और गुरू में अंतर क्या है?
यानी एकवचन में गुरु, द्विवचन में गुरू (देखें चित्र)। हिंदी में द्विवचन होता नहीं है और एकवचन से बहुवचन बनाने के यहाँ नियम भी अलग हैं, इसलिए एक हो तो गुरु, दो हों तो गुरु और दो से अधिक हों तो भी गुरु। अध्यापक, शिक्षक , भारी , बड़ा , लम्बा , दीर्घ आदि का बोध कराने वाले शब्द का शुद्ध रूप है ” गुरु ” । गुरू अशुद्ध है । शब्द कोश में ” गुरू” नाम से कोई शब्द नहीं है । हां संस्कृत भाषा में ( गुरु / गुरू/ गुरव: ) गुरु का द्विवचन ” गुरू ” अवश्य होता है ।जिसका अर्थ है दो गुरु ।

गुरु कुल में रहने वाले विध्यार्थी भिक्षा लेने घर घर जाते थे। वास्तव में गुरु कुल में केवल पढाया नहीं जाता बल्कि जीवन जीने की कला सिखाई जाती है। सुबह सूर्योदय पूर्व उठना। दैनिक िक्र या निपटा कर व्यायाम, प्राणायाम करना। नहाकर हवन पूजन करना, कुछ ऐसे होती थी दिन की शुरुआत। पढाई के लिए पुरातन संस्कृत वेद आदि पाठन के साथ आधुनिक अंग्रेजी तक का अद्भुत समागम था उनके पाठ्यक्रम में। शाम को संध्या नाम की क्रिया करना उनका नित्य क्रम था। खाने के लिए कुछ तय संख्या घरों से ही भिक्षा लेने का नियम था। जो मिलता सभी बांटकर खाते। रात को स्वाध्याय व सोने का समय भी निश्चित था।

गुरु कुल कोई आजकल के स्कूल की तरह मोटी फिस लेकर किताबों का ज्ञान नहीं देते थे। बल्कि गुरु कुल ज्ञान के साथ साथ जीवन जीने के लिए संस्कार दे रहे थे। सनातन संस्कृति और परंपरा को जीवित रखें हुए थे। भारत में 4 हजार गुरुकुल हैं, जहां हजारों बच्चे अपनी बाल्यावस्था से युवावस्था तक चौबीसों घंटे गुरु के सानिध्‍य में रहकर संपूर्ण 64 कलाओं का ज्ञान प्राप्त करते हैं। ऐसा ज्ञान, जिसका उद्देश्य नौकरी पाना नहीं बल्कि आध्यात्मिक उन्नति पाना होता है। 

गणेश मुखी रूद्राक्ष पहने हुए व्यक्ति को मिलती है सभी क्षेत्रों में सफलता एलियन के कंकालों पर मैक्सिको के डॉक्टरों ने किया ये दावा सुबह खाली पेट अमृत है कच्चा लहसुन का सेवन श्रीनगर का ट्यूलिप गार्डन वर्ल्ड बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में हुआ दर्ज महिला आरक्षण का श्रेय लेने की भाजपा और कांग्रेस में मची होड़