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साहिर लुधियानवी के जन्मदिवस पर वुमन्स डे की ये लाइनें

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“औरत ने जनम दिया मर्दों को। मर्दों ने उसे बाज़ार दिया। जब जी चाहा मसला-कुचला। जब जी चाहा दुत्कार दिया।” आज वुमन्स डे पर साहिर लुधियानवी की लिखी ये लाइनें याद आ गई। आसान शब्दों में गहरी बात कहने में माहिर थे साहिर। आज साहिर लुधियानवी का जन्मदिवस है। 08 मार्च 1921 को लुधियाना में साहिर साहब का जन्म हुआ था। पिता एक बड़े ज़मींदार। लेकिन पिता से साहिर साहब को हमेशा नफ़रत रही। वजह, साहिर साहब की मां सरदार बेग़म को उनके पिता ने ज़बरन तलाक दिया और साहिर को भी ज़बरन उनसे छीन लिया। अपने पिता और ज़मींदारी की उनकी हनक के चलते ही साहिर ने एक कविता लिखी थी जिसका टाइटल था जागीर। इस कविता में साहिर ने ज़मींदारी पर तंज किया था।

जिस वक्त देश का विभाजन हुआ था उस वक्त साहिर अपनी मां के साथ लाहौर में थे। वो वहां कुछ उर्दू रिसालों(पत्रिकाओं) के संपादक की हैसियत से काम कर रहे थे। रोज़ी-रोटी वहां थी तो साहिर भी विभाजन के बाद पाकिस्तान में ही रह गए। लेकिन जल्द ही उनके लेखों और उनकी नज़्मों ने उन्हें कुछ दक्षिणपंथी इस्लामिक संगठनों के निशाने पर ला दिया। ये संगठन साहिर के खिलाफ बोलने लगे।

साहिर पर पाकिस्तान में कम्यूनिज़्म को बढ़ावा देने का आरोप लगाया गया। इसी दौरान ख्वाजा अहमद अब्बास ने इंडिया वीकली मैगज़ीन में साहिर के नाम एक ओपन लैटर लिखा। उस लैटर में साहिर के लिए उन्होंने लिखा,”तुम अपना नाम बदल लो। लुधियाना भारत का है। और तुम्हारे नाम से जुड़े लुधियानवी शब्द की वजह से तुम भारतीय शायर ही कहलाओगे।” इत्तेफाक से इंडिया वीकली की कुछ प्रतियां लाहौर में भी पहुंची। उनमें से एक किसी ने साहिर को दी। ख्वाजा अहमद अब्बास का वो ओपन लैटर साहिर ने भी पढ़ा। उसका असर भी साहिर पर हुआ। और एक दिन अपनी बूढ़ी मां को साथ लेकर साहिर चुपचाप लाहौर से बंबई आ गए।

बंबई आने के बाद साहिर को कुछ वक्त तक बेरोजगार रहना पड़ा था। एक दिन उनके दोस्त मोहन सहगल ने उन्हें बताया कि एस.डी.बर्मन किसी गीतकार को तलाश रहे हैं। उनसे जाकर मिल लो। वो खार स्थित ग्रीन होटल में रुके हुए हैं। साहिर वहां गए। बर्मन दा के कमरे के बाहर ‘प्लीज़ डू नोट डिस्टर्ब’ का साइन लगा था। लेकिन साहिर ने उसको नज़रअंदाज़ कर दिया और सीधे कमरे में घुस गए। साहिर ने बर्मन दा से बताया कि मैं गीतकार हूं। उस वक्त बर्मन दा नहीं जानते थे कि साहिर उर्दू साहित्य का कितना बड़ा नाम थे। उन्होंने साहिर को एक धुन दी और कहानी की सिचुएशन समझाते हुए कहा कि इस पर कुछ लिखो। साहिर ने देखा कि बर्मन दा के कमरे में एक हारमोनियम भी रखा है। साहिर ने उनसे गुज़ारिश की कि आप एक दफा ये धुन हारमोनियम पर बजाकर सुना दें। बर्मन दा ने हारमोनियम बजाना शुरू कर दिया। और कुछ ही मिनटों में साहिर ने लिखा,’ठंडी हवाएं। लहरा के आएं। रुत हैं जवां, तुम हो यहां कैसे भुलाएं।’

ये गीत हिस्सा बना साल 1951 में आई महेश कौल द्वारा निर्देशित नौजवान फिल्म का। इसे महान लता मंगेशकर जी ने गाया था। और नलिनी जयवंत पर ये गीत फिल्माया गया था। अगले कई सालों तक बर्मन दा और साहिर की जोड़ी ने साथ काम किया। मगर गुरूदत्त की प्यासा के बाद ये जोड़ी टूट गई। दरअसल, प्यासा का गीत-संगीत इतना विशिष्ट था कि जब लोगों ने वो सुना तो उन पर इन गीतों का गहरा असर हुआ। प्यासा के गीतों की सफलता का श्रेय किसे मिलना चाहिए, इसी बात को लेकर इन दोनों के बीच ठन गई। बर्मन दा का कहना था कि उन्होंने संगीत तैयार किया था। इसलिए पूरा क्रेडिट उन्हें मिलना चाहिए। साहिर का कहना था कि उन्होंने गीत लिखे थे। इसलिए श्रेय उन्हें मिलना चाहिए। और साहिर तो इस बात को काफी ज़ोर-शोर से कहा करते थे। बर्मन दा को ये अच्छा नहीं लगा। उन्होंने साहिर के साथ फिर कभी काम नहीं किया।

साहिर को लिफ्ट में चढ़ने से बड़ी घबराहट होती थी। वो अधिकतर उन लोगों के घर कभी नहीं जाते थे जिनके घर मल्टीस्टोरी बिल्डिंग्स में हुआ करते थे। पहली से दूसरी मंज़िल तक वो सीढ़ियों से चले जाते थे। लेकिन उससे ऊपर रहने वाले लोगों के घर जाने से वो परहेज करते थे। इसी तरह साहिर को हवाई जहाज़ में भी डर लगता था। आपको हैरानी होगी मगर ये सच है कि भारत में कहीं भी जाने के लिए वो कार का इस्तेमाल करते थे। और वो हमेशा दो कारें लेकर चलते थे। उनका मानना था कि अगर एक कार ख़राब हो गई तो दूसरी कार काम तो आ जाएगी। एक दफा मशहूर उपन्यासकार कृष्ण चंदर और साहिर कार से मुंबई से लुधियाना जा रहे थे। शिवपुरी के पास मान सिंह डाकू ने उनकी दोनों कारों को रोल लिया और सभी को बंधक बना लिया। साहिर ने मान सिंह को बताया कि मैंने ही डाकुओं के जीवन पर बनी फिल्म ‘मुझे जीने दो’ के सभी गीत लिखे थे। मान सिंह ने वो फिल्म देखी थी। मान सिंह साहिर से बड़ा प्रभावित हुआ। उसने बाइज्ज़त साहिर को जाने दिया।

अब आखिर में साहिर लुधियानवी के इश्क के बारे में बात करते हैं। साहिर का नाम तो कई महिलाओं संग जुड़ा था। लेकिन शादी उन्होंने कभी नहीं की। अमृता प्रीतम साहिर की सबसे घनिष्ठ महिला मित्र थी। अमृता प्रीतम ने साहिर का ज़िक्र करते हुए अपनी आत्मकथा रशीदी टिकट में लिखा था,”साहिर बिना कुछ बोले मेरे कमरे में सिगरेट पीता था। आधी होने पर सिगरेट को बुझाकर रख देता और फिर नई सिगरेट सुलगा लेता। उसके जाने के बाद भी काफी देर तक मेरे कमरे में सिगरेट की महक रहती थी। मैं साहिर की आधी बची हुई सिगरटों को संभालकर रखती थी। और अकेले में उन्हें सुलगाती थी। मैं जब उन सिगरटों को अपनी उंगलियों से पकड़ती थी तो मुझे लगता था जैसे मैं साहिर के हाथों को छू रही हूं। मुझे सिगरेट पीने की लत ऐसे ही लगी।”

गायिका सुधा मल्होत्रा का नाम भी साहिर लुधियानवी के साथ खूब जोड़ा गया था। हालांकि सच ये है कि सुधा के लिए साहिर का प्यार इकतरफा था। सुधा मल्होत्रा जी ने एक इंटरव्यू में बताया था कि शायद साहिर लुधियानवी को मेरी आवाज़ पसंद थी। वो मुझ पर मोहित थे।

उन्होंने हमेशा मुझे अच्छे गाने दिए। वो रोज़ सुबह मुझे फोन करते थे। मेरे चाचा तो मुझे चिढ़ाया भी करते थे। ये बोलकर कि तेरा मॉर्निंग अलार्म बज गया है। साहिर मुझे अच्छे लगते थे। लेकिन मेरा और उनका कोई रोमांस नहीं चल रहा था। वो उम्र में मुझसे बहुत बड़े थे। मैं उनकी बहुत इज़्जत करती थी। कुछ लोग कहते हैं कि गुमराह फिल्म का गीत ‘चलो एक बार फिर से अजनबी हो जाएं हम दोनों’ साहिर ने सुधा मल्होत्रा के लिए लिखा था।

लेकिन ये सच नहीं है। साहिर ने ये नज़्म सुधा मल्होत्रा से मुलाकात होने से काफी पहले लिखी थी। साहिर के काव्य संग्रह ‘तल्खियां’ में ये नज़्म ‘खूबसूरत मोड़’ नाम से पब्लिश भी हो चुकी थी। सुधा मल्होत्रा ने जब शादी करके फिल्म इंडस्ट्री छोड़ दी तो फिर उनकी और साहिर लुधियानवी की कोई मुलाकात नहीं हुई। 

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