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एक गृहस्थ भक्त अपनी जीविका का आधा भाग घर में दो दिन के खर्च के लिए पत्नी को देकर अपने गुरुदेव के पास गया। दो दिन बाद उसने अपने गुरुदेव को निवेदन किया के अभी मुझे घर जाना है। मैं धर्मपत्नी को दो ही दिन का घर खर्च दे पाया हूँ।
घर खर्च खत्म होने पर मेरी पत्नी व बच्चे कहाँ से खायेंगे। गुरुदेव के बहुत समझाने पर भी वो नहीं रुका। तो उन्होंने उसे एक चिट्ठी लिख कर दी। और कहा कि रास्ते में मेरे एक भक्त को देते जाना। वह चिट्ठी लेकर भक्त के पास गया।
उस चिट्ठी में लिखा था कि जैसे ही मेरा यह भक्त तुम्हें ये खत दे तुम इसको 6 महीने के लिए मौन साधना की सुविधा वाली जगह में बन्द कर देना। उस गुरु भक्त ने वैसे ही किया। वह गृहस्थ शिष्य 6 महीने तक अन्दर गुरु पद्धत्ति नियम, साधना करता रहा परन्तु कभी कभी इस सोच में भी पड़ जाता कि मेरी पत्नी का क्या हुआ, बच्चों का क्या हुआ होगा ?
उधर उसकी पत्नी समझ गयी कि शायद पतिदेव वापस नहीं लौटेंगे। तो उसने किसी के यहाँ खेती बाड़ी का काम शुरू कर दिया। खेती करते करते उसे हीरे जवाहरात का एक मटका मिला।
उसने ईमानदारी से वह मटका खेत के मालिक को दे दिया। उसकी ईमानदारी से खुश होकर खेत के मालिक ने उसके लिए एक अच्छा मकान बनवा दिया व आजीविका हेतु जमीन जायदात भी दे दी। अब वह अपनी ज़मीन पर खेती कर के खुशहाल जीवन व्यतीत करने लगी।
जब वह शिष्य 6 महिने बाद घर लौटा तो देखकर हैरान हो गया और मन ही मन गुरुदेव के करुणा कृपा के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने लगा कि सद्गुरु ने मुझे यहाँ अहंकार मुक्त कर दिया। मै समझता था कि मैं नहीं कमाकर दूँगा तो मेरी पत्नी और बच्चों का क्या होगा ?
करने वाला तो सब परमात्मा है। लेकिन झूठे अहंकार के कारण मनुष्य समझता है कि मैं करने वाला हूँ। वह अपने गुरूदेव के पास पहुँचा और उनके चरणों में पड़ गया। गुरुदेव ने उसे समझाते हुए कहा बेटा हर जीव का अपना अपना प्रारब्ध होता है। और उसके अनुसार उसका जीवन यापन होता है।
मैं भगवान के भजन में लग जाऊँगा तो मेरे घरवालों का क्या होगा ? मैं सब का पालन पोषण करता हूँ मेरे बाद उनका क्या होगा यह अहंकार मात्र है। वास्तव में जिस परमात्मा ने यह शरीर दिया है उसका भरण पोषण भी वही परमात्मा करता है।