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दो पक्ष : एक चिंतन और दूसरा कर्म

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रमायण काल की बात है जब विश्वामित्र दशरथ जी से राम और लक्ष्मण को यज्ञ की पूर्ती हेतु वन ले जा रहे थे तो भगवान राम ने एक जिज्ञासा प्रकट की- “ऋषिवर आपके पास शास्त्र के साथ-साथ शस्त्रों का भी भण्डार है, और आप की तुलना में दिव्यास्त्रों का ज्ञान भी मुझे नहीं है, फिर आप उन राक्षसों से स्वयं न लड़ कर हमें क्यों ले जा रहे है” ?

गुरु विश्वामित्र हँसे और बोले- “प्रकृति का न्याय बड़ा विचित्र है पुत्र ! प्रकृति किसी एक व्यक्ति को सम्पूर्ण शक्तियां नहीं देती | दो पक्ष हैं पुत्र ! एक चिंतन और दूसरा कर्म | यह भी एक अदभुत नियम है कि जो चिंतन करता है, जो न्याय अन्याय की बात सोचता है, सामाजिक कल्याण की बात सोचता है, उसके व्यक्तित्व का चिंतन-पक्ष विकसित होता है और उसका कर्म पक्ष पीछे छूट जाता है | तुम देखोगे पुत्र की चिन्तक सिर्फ सोचता है | वह जानता है कि क्या उचित है क्या अनुचित | समाज और देश में क्या होना चाहिए क्या नहीं | किन्तु चिंतन को कर्म में परिणित कर पाना उसके बस में नहीं होता | उसकी कर्म शक्ति क्षीण हो जाती है | वहाँ केवल मस्तिस्क रह जाता है |

दूसरी ओर जो न्याय और औचित्य राष्ट्र और समाज की बात न सोचते हुए सिर्फ स्वार्थ बस कम करते हैं, वो कर्म उनको राक्षस बना देता है |

न्याय और अन्याय का विचार मनुष्य को ऋषि बना देता है | और पुत्र ! ऐसे लोग जिनमें न्याय-अन्याय का विचार और कर्म दोनों हो, ऐसे अद्भुत लोग संसार में बहुत कम है | जनसामान्य ऐसे ही लोगों को भगवान का अवतार मान लेता है | जब न्यायपूर्ण कर्म करने की शक्ति किसी में आ जाय और जनसामान्य का नेतृत्व अपने हाँथ में लेकर आगे बढे, अन्याय का विरोध करे, तो उसमें प्रकृति की शक्तियां पूर्णता में जाग्रत हो उठती हैं | जब मुझमें कर्म था तब चिंतन नहीं था | पर जब आज चिंतन है ज्ञान है, ऋषि कहलाता हूँ तो कर्म की शक्ति मुझमें नहीं है | सामान्यतः बुद्धिवादी ऋषि अपंग और कर्म शून्य हो जाया है | इसीलिये मुझे तुम्हारी आवश्यकता है पुत्र राम |

फिर बोले- “जब तुम मेरे आदेश के अनुसार काम करोगे तो तुम मेरे पूरक कहलाओगे | किन्तु जब तुम स्वयं न्याय की बात सोचकर स्वतंत्र कर्म करोगे तो अवतार कहलाओगे |”

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