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40 के दशक का सबसे महंगा विलेन चंद्रमोहन

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1940 के दशक के बात है। बॉम्बे के महालक्ष्मी रेस कोर्स में एक नौजवान अक्सर नज़र आता था। उसके साथ उसका एक दोस्त भी होता था। दोनों को घोड़ों की रेस पर पैसा लगाने का शौक था। दोनों हज़ारों रुपए उड़ा दिया करते थे। उस ज़मान में वो जितना रुपया उड़ाते थे, उसे देखकर कई लोग दंग रह जाते थे। दोनों को महंगी स्कॉच पीने का शौक था। अक्सर छुट्टी के दिन दोनों सुबह से ही पीना शुरू कर देते थे।

बॉम्बे के प्रीमियम रेस्टोरेंट्स में उनका लगातार आना-जाना रहता था। कुल मिलाकर शाही ज़िंदगी गुज़ारते थे दोनों। उनमें से एक था उस ज़माने का सबसे महंगा हीरो मोतीलाल राजवंश। और दूसरा था सबसे महंगा विलेन चंद्रमोहन। हम चंद्रमोहन के बारे में बात करेंगे। क्योंकि आज चंद्रमोहन जी की डेथ एनिवर्सरी है। 2 अप्रैल 1949 को चंद्रमोहन जी का निधन हुआ था।

चंद्रमोहन छोटे ही थे जब इनके माता-पिता का साया इनके सर से उठ गया था। इनकी परवरिश इनके ननिहाल नरसिंहपुर मध्य प्रदेश में हुई थी। नाना-नानी इन्हें बहुत चाहते थे। इसलिए वो इन पर हमेशा नज़र रखते थे। और इन्हें वो पसंद नहीं था। इन्हें आज़ादी चाहिए थी। 1930 में ये भागकर दिल्ली आ गए। दिल्ली में इन्हें एक सिनेमाघर में मैनेजर की नौकरी मिल गई। कुछ दिन ये नौकरी करने के बाद ये एक फिल्म डिस्ट्रीब्यूशन कंपनी से जुड़ गए।

एक दिन इन्हें काम के सिलसिले में पूना के प्रभात स्टूडियो जाना पड़ा। वहां इनकी मुलाकात वी.शांताराम जी से हुई। पहली ही नज़र में वी.शांताराम को इनकी शख्सियत बड़ी खास लगी। विशेषतौर पर इनकी नीली आंखें। वी.शांताराम ने फैसला किया कि वो इस नौजवान को अपनी फिल्म में विलेन के रोल में कास्ट करेंगे।

वी.शांताराम जी ने जब इस बारे में चंद्रमोहन जी से बात की तो शुरुआत में तो उन्होंने इन्कार कर दिया। लेकिन वी.शांताराम के काफी कहने पर ये फिल्मों में काम करने को तैयार हो गए। इस तरह साल 1934 में आई फिल्म अमृत मंथन से चंद्रमोहन का फिल्मी सफर शुरू हो गया। अमृत मंथन में ये एक ऐसे पुजारी बने थे जो बेहद धूर्त और चालबाज़ होता है। बस फिर क्या था। देखते ही देखते चंद्रमोहन उस ज़माने में फिल्म इंडस्ट्री का चर्चित चेहरा और चर्चित नाम बन गए।

वी.शांताराम ने अपनी फिल्म धर्मात्मा और अमर ज्योती में भी चंद्रमोहन को विलेन कास्ट किया। अमर ज्योति(1936) चंद्रमोहन के करियर की वो फिल्म बनी जिसने इन्हें देशभर में मशहूर किया। 1939 में आई सोहराब मोदी की पुकार चंद्रमोहन के करियर की सबसे सफल फिल्मों में से एक मानी जाती है।

इत्तेफाक देखिए कि चंद्रमोहन के पक्के दोस्त मोतीलाल का करियर भी 1934 में ही शहर का जादू नामक फिल्म से शुरू हुआ था। वैसे, आज मोतीलाल जी के बारे में नहीं, चंद्रमोहन जी के बारे में ही बात करेंगे। चंद्रमोहन जी की कहानी पर वापस आते हैं। चंद्रमोहन जी ने गीता (1940), रोटी (1942), तकदीर (1943), शकुंतला (1943) , नौकर (1943) , रौनक (1944), पन्ना दाई (1945), हुमायूं (1945), मुमताज़ महल (1945), शालीमार (1946) और शहीद (1948) जैसी सफल फिल्मों में काम किया था। चूंकि चंद्रमोहन मराठी के भी अच्छे जानकार थे तो इन्होंने चंद मराठी फिल्मों में भी एक्टिंग की थी। करियर के शिखर पर चंद्रमोहन जी की सैलरी 3750 रुपए महीना हुआ करती थी। और ये उस ज़माने में बहुत बड़ी रकम थी।

कम लोग इस बात को जानते होंगे कि के.आसिफ की मुगल-ए-आज़म फिल्म में अकबर का चरित्र निभाने के लिए पहले चंद्रमोहन जी को ही चुना गया था। ये साल 1945 की बात है। चंद्रमोहन जी ने मुगल-ए-आज़म के कुछ दृश्य शूट भी किए थे। लेकिन शूटिंग में काफी देर हो रही थी। और फिर 1947 में जब देश का विभाजन हुआ तो उस वक्त मुगल-ए-आज़म के प्रोड्यूसर हाकिम शिराज़ अली पाकिस्तान चले गए। और मुगल-ए-आज़म बंद हो गई।

बाद में जब के.आसिफ ने मुगल-ए-आज़म दोबारा शुरू की तो तब तक चंद्रशेखर नहीं रहे थे। दो अप्रैल 1949 को चंद्रशेखर जी का दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया था। मौत से पहले चंद्रमोहन की आर्थिक हालत खस्ता हो चुकी थी। जो भी उन्होंने कमाया था वो सब गैंबलिंग और शराब में चंद्रमोहन गंवा चुके थे। जीवन के आखिरी साल बहुत मुश्किलों में गुज़रे।

फिल्म पत्रकार बन्नी रुबेन अपनी किताब फॉलीवुड फ्लैशैबैक में लिखते हैं,”एक दिन चंद्रमोहन ने अपने दोस्त मोतीलाल को अपने घर बुलाया। जब मोतीलाल वहां पहुंचे तो उन्होंने देखा कि चंद्रमोहन अकेले बैठे हैं। एक वैट69 की बोतल उनके सामने खुली रखी थी। मोतीलाल आए और उनके सामने बैठ गए। चंद्रमोहन ने उनसे बात की। लेकिन उस दिन उन्होंने मोतीलाल को पैग ऑफर नहीं किया। जबकी ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था जब चंद्रमोहन और मोतीलाल इस तरह शराब की बोतल के साथ बैठे हों और उन दोनों ने जाम ना छलकाए हों।

मोतीलाल जब जाने लगे तो चंद्रमोहन उन्हें विदा करने लिफ्ट तक आए। फिर अचानक चंद्रमोहन के मन का बांध टूट गया। वो खुद पर काबू ना रख सके। मोतीलाल को गले से लगाकर वो रोने लगे। उन्होंने दोस्त मोतीलाल को बताया कि वैट69 की बोतल में देसी दारू भरी है। उस वक्त वही खरीद सकने की हैसियत रह गई थी उनकी। और उन्हें शर्म आ रही थी कि वो अपने उस दोस्त को कैसे देसी दारू पिलाएं जिसके साथ आज तक उन्होंने सिर्फ महंगी शराब ही पी है।”

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