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मर्यादा के प्रतीक – प्रभु श्री राम

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रामायण के अयोध्या कांड के प्रथम सर्ग में महर्षि वाल्मीकि लिखते हैं :-
सर्व एव तु तस्येष्टाश्चत्वार: पुरुषर्षभा:। स्वशरीराद् विनिर्वृताश्चत्वार इव बाहव:।।
तेषामपि महातेजा रामो रतिकर: पितु:। स्वयम्भूरिव भूतानां बभूव गुणवत्तर:।।
अर्थ – अपने शरीर से प्रकट हुई चारों भुजाओं के समान वे सब चारों ही पुरुषशिरोमणि पुत्र महाराज को बहुत ही प्रिय थे। परंतु उनमें भी महातेजस्वी श्री राम सब की अपेक्षा अधिक गुणवान होने के कारण समस्त प्राणियों के लिए ब्रह्मा जी की भांति पिता के लिए विशेष प्रीतिवर्धक थे ।
स हि देवैरुदीर्णस्य रावणस्य वधार्थिभि:। अर्थितो मानुषे लोके जज्ञे विष्णु: सनातन:।।
अर्थ – इसका एक कारण और भी था – वे साक्षात् सनातन विष्णु थे और परम प्रचंड रावण के वध की अभिलाषा रखने वाले देवताओं की प्रार्थना पर मनुष्यलोक में अवतीर्ण हुए थे।
श्री रामचंद्र सद्गुणों से संपन्न होने के साथ-साथ प्रजा में भी लोकप्रिय थे। इसका वाल्मीकिजी इस प्रकार वर्णन करते हैं –
बुद्धिमान् मधुराभाषी पूर्वभाषी प्रियंवद:। वीर्यवान्न च वीर्येण महता स्वेन विस्मित:।।
अर्थ – वे बड़े बुद्धिमान थे और सदा मीठे वचन बोलते थे। अपने पास आए हुए मनुष्यों से पहले स्वयं ही बात करते और ऐसी बातें मुंह से निकालते , जो उन्हें प्रिय लगे। बल और पराक्रम से संपन्न होने पर भी अपने महान पराक्रम के कारण उन्हें कभी गर्व नहीं होता था।
स तु श्रेष्ठैर्गुणैर्युक्तै: प्रजानां पार्थिवात्मज:। बहिश्चर इव प्राणो बभूव गुणत: प्रिय:।।
अर्थ – राजकुमार श्रीराम श्रेष्ठ गुणों से युक्त थे वे। अपने सद्गुणों के कारण प्रजाजनों को बाहर विचरने वाले प्राण की भांति प्रिय थे।
धर्मकामार्थतत्त्वज्ञ: स्मृतिमान् प्रतिभावान्। लौकिके समयाचारे कृतकल्पो विशारद:।
अर्थ – उन्हें धर्म , काम और अर्थ के तत्त्व का सम्यक् ज्ञान था। वे स्मरणशक्ति से संपन्न और प्रतिभाशाली थे। वे लोक-व्यवहार के संपादन में समर्थ और समयोचित धर्माचरण में कुशल थे।
इत्येवं विविधैस्तैस्तैरन्यपार्थिवदुर्लभै:। शिष्टैरपरिमेयैश्च लोके लोकोत्तरैर्गुणै:।।
तं समीक्ष्य तदा राजा युक्तं समुदितैर्गुणै:। निश्चित्य सचिवै: सार्धं यौवराज्यममन्यत।।
अर्थ – इस प्रकार विचार कर तथा अपने पुत्र श्री राम को उन – उन नाना प्रकार के विलक्षण , सज्जनोचित , असंख्य तथा लोकोत्तर गुणों से , जो अन्य राजाओं में दुर्लभ हैं , विभूषित देख राजा दशरथ ने मंत्रियों के साथ सलाह करके उन्हें युवराज बनाने का निश्चय कर लिया।
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