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कहानी: गोवर्धन

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एक दिन भगवान श्री कृष्ण ने देखा कि पूरे ब्रज में तरह तरह के मिष्ठान तथा पकवान बनाए जा रहे हैं। पूछने पर ज्ञात हुआ कि वृषासुर, संहारकर, मेघदेवता देवराज इंद्र की पूजा करने के लिए तैयार हो रहा हैं।

इंद्र की प्रसन्नता से वर्षा होगी, गायों को चारा मिलेगा, तथा जीविकापार्जन की समस्या हल होगी। यह सुनकर भगवान श्री कृष्ण ने इंद्र की निंदा करते हुए कहा कि उस देवता की पूजा करनी चाहिए जो प्रत्यक्ष आकर पूजन सामग्री स्वीकार करे, गोपों ने यह वचन सुनकर कहा कि कोटि कोटि देवताओं के राजा इंद्र की इस तरह निंदा नही करनी चाहिए।

कृष्ण ने कहा- इंद्र में क्या शक्ति हैं जो पानी बरसा कर हमारी सहायता करेगा, उससे तो शक्तिशाली तथा सुंदर वह गोवर्धन पर्वत हैं, जो वर्षा का मूल कारण हैं। इसकी हमें पूजा करनी चाहिए।

भगवान श्रीकृष्ण के वाग्जाल में फंसकर सभी ब्रजवासी घर जाकर गोवर्धन पूजा के लिए चारो ओर धूम मचा दी। तत्पश्चात नन्द जी ने ग्वाल गोपिकाओं सहित एक सभा में कृष्ण से पूछा- इन्द्र्जन से तो दुर्भिक्ष उत्पीड़न समाप्त होगा, चौमासे के सुंदर दिन आयेगे मगर गोवर्धन पूजा से क्या लाभ होगा।

उत्तर में श्री कृष्ण जी ने गोवर्धन की भुरी भूरि प्रशंसा की तथा गोप गोपियों की आजीविका का एक मात्र सहारा सिद्ध किया। भगवान की बात सुनकर समस्त ब्रजमंडल बहुत प्रभावित हुआ तथा स्वग्रह जाकर सुमधुर पकवानों सहित पर्वत तराई में कृष्ण द्वारा बनाई विधि से गोवर्धन की पूजा की।

भगवान की कृपा से ब्रजनिताओं द्वारा अर्पित समस्त पूजन सामग्री को गिरिराज ने स्वीकार करते हुए खूब आशीर्वाद दिया, सभी जन अपना पूजन सफल समझ कर प्रसन्न हो रहे थे। तभी नारद जी इंद्र महोत्सव देखने के लिए ब्रज आ गये।पूछने पर ब्रज नागरिकों ने बताया कि श्रीकृष्ण की आज्ञा से इस वर्ष इंद्र महोत्सव समाप्त कर दिया गया हैं।

उसके स्थान पर गोवर्धन पूजा की जा रही हैं। यह सुनते ही नारद उलटे पाँव इंद्र लोक गये तथा खिन्न मुद्रा में बोले- हे राजन तुम महलों में सुख की नीद की खुमारी ले रहे हो, उधर ब्रजमंडल में तुम्हारी पूजा समाप्त करके गोवर्धन की पूजा हो रही हैं।

इसमें इंद्र ने अपनी मानहानि समझकर मेघों को आज्ञा दी कि वे गोकुल में जाकर प्रलयकालिक वर्षा से पूरा गाँव तहस नहस कर दे। पर्वताकार प्रलयकारी बादल ब्रज की ओर उमड़े, भयानक वर्षा देखकर ब्रजमंडल घबरा गया। सभी ब्रजवासी श्री कृष्ण की शरण में जाकर बोले- भगवान, इंद्र हमारी नगरी को डुबोना चाहता हैं, अब क्या किया जाय?

श्री कृष्ण ने सांत्वना देते हुए कहा कि तुम लोग अपनी गौओं सहित गोवर्धन की शरण में चलों वही तुम्हारी रक्षा करेगा। इस तरह समस्त ग्वाल बाल गोवर्धन की तराई में पहुच गये। श्रीकृष्ण ने गोवर्धन को कनिष्ठा अंगुली पर उठा लिया और सात दिन तक गोप गोपिकाओं उसी छाया में सुखपूर्वक रहे।

भगवान की कृपा से उनकों एक भी छींटा नही लग पाया। इससे इंद्र को महान आश्चर्य हुआ। तब भगवान की महिमा को समझकर तथा अपना गर्व नष्ट जानकर इंद्र स्वयं ब्रज आए और भगवान कृष्ण के चरणों में गिरकर अपनी मूर्खता पर महान पश्चाताप किया।

सांतवें दिन भगवान ने गोवर्धन पर्वत को नीचे रखकर इसी भांति प्रतिवर्ष गोवर्धन पूजा करके अन्नकूट उत्सव मनाने की आज्ञा दी। तभी से यह उत्सव अन्नकूट के नाम से मनाया जाने लगा।

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