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कादर ख़ान बतौर विलेन और कॉमेडियन ऐक्टर फिल्मी सफ़र

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एक बार कॉलेज के एनुअल फंक्शन में कादर खान का नाटक देखने के लिये ऐक्टर दिलीप कुमार ने अपनी इच्छा जताई। मज़े की बात कि फोन पर हुई बात के दौरान कादर ख़ान इसके लिए उनके आगे दो शर्त रख दी जिसे उन्होंने स्वीकार भी कर लिया। कादर ख़ान ने दिलीप कुमार से कहा कि एक तो आपको समय पर आना होगा और दूसरा, अगर नाटक पसंद आया तो पूरा देखना होगा।

इस पर दिलीप कुमार ने मज़ाक में पूछा कि “अगर कोई कॉन्ट्रेक्ट करना हो इसके लिये तो साइन कर दूँ?” ख़ैर दिलीप ने पूरा नाटक देखा और कादर खान से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अपनी अगली 2 फिल्मों के लिए उन्हें साइन भी कर लिया। उन फ़िल्मों के नाम थे “सगीना महतो” और “बैराग”। हालांकि बतौर ऐक्टर कादर ख़ान की शुरुआत साल 1973 में आयी राजेश खन्ना की फिल्म ‘दाग’ से हुई थी और ये दोनों फ़िल्में बाद में आयीं थीं।

दोस्तों कादर ख़ान एक बेहतरीन ऐक्टर थे लेकिन उन्हें बतौर राइटर लोगों ने पहले नोटिस किया था। एक बार मुंबई में एक ड्रामा कॉम्पिटिशन आयोजित हुआ जिसमें उनके कॉलेज के लड़कों ने उन्हें पार्टिसिपेट करने को कहा, हालांकि पहले तो कादर ख़ान ने करने से मना कर दिया लेकिन जब उन्हें यह पता चला कि जीतने वाले को 1500 रूपये कैश इनाम में मिलने वाले हैं तब वे मान गये क्योंकि उस वक़्त उन्हें बतौर टीचर 300 रुपये मिला करते थे।

उस कॉम्पिटिशन में कादर ख़ान के नाटक ‘लोकल ट्रेन’ को फस्ट प्राइज़ तो मिला ही साथ ही उन्हें बेस्ट राइटर, बेस्ट डायरेक्टर, बेस्ट एक्टर के सभी अवॉर्ड्स भी हासिल हुए। कादर ख़ान ने बताया था कि “उस वक्त मुझे 1500 रुपये नक़द इनाम के तौर पर मिले थे और तब मैंने जिंदगी में पहली बार एक साथ पंद्रह सौ रुपए देखे थे।

कादर ख़ान ने अपने इंटरव्यू में बताया था कि, “उस वक़्त तो मेरे पैर ही कांपने लगे थे। आप समझ सकते हैं अगर 300 रुपए पाने वाले के हाथ में 1500 रुपये आएं तो उसका क्या हाल होगा।” उस कॉम्पिटिशन में राइटर राजेन्द्र सिंह बेदी और उनके बेटे डायरेक्टर नरेंदर बेदी और ऐक्ट्रेस कामिनी कौशल जज के रूप में थे।

नाटक ख़त्म होने के बाद डायरेक्टर नरेंद्र बेदी उनके पास आए और कहा कि मैं एक फिल्म बना रहा हूँ ‘जवानी दीवानी’ जिसमें रणधीर कपूर और जया भादुड़ी हैं। मैं चाहता हूं कि आप इसमें डायलॉग लिखें। कादर खान ने कहा कि सर मुझे नहीं पता कि फ़िल्मों में डायलॉग कैसे लिखे जाते हैं।

इस पर नरेंद्र बेदी ने कहा कि “बस जैसे नाटकों के डॉयलॉग लिखते हो वैसे ही फिल्म के डायलॉग भी लिखने होते हैं।” अगले दिन कादर ख़ान को उन्होंने अपने ऑफिस बुलाकर फ़िल्म की स्टोरी वगैरह समझा दी और कहा कि एक महीने बाद फ़िल्म के इस पार्ट की शूटिंग है तब तक वे इसे लिखकर दे दें। कादर ख़ान ने उसी वक़्त लोकल ट्रेन पकड़ी और मुंबई के ही फेमस क्रॉस मैदान में जाकर स्क्रिप्ट लिखनी शुरू कर दी, उस दौरान उन्हें पास खेलते लड़कों की फूटबॉल भी बीच-बीच में आकर लग जाती।

ख़ैर तीन चार घंटे के अंदर ही उन्होंने वह स्क्रिप्ट पूरी कर डाली और वापस नरेंद्र बेदी के ऑफिस पहुँच गये। नरेन्द्र बेदी को लगा कि कादर ख़ान को शायद कहानी समझ में नहीं आयी इसलिए वे कुछ पूछने आ रहे हैं, यह सोचकर झल्लाते हुए वे अपने आप में ही कुछ बुदबुदाने लगे जिसे कादर ख़ान ने नोटिस कर लिया। उन्होंने कहा “सर आपने मुझे गाली दी है मैं दूर से भी होंठ पढ़ सकता हूँ।” नरेन्द्र बेदी ने कहा, “यार तुझे इतने अच्छे से समझाया था लेकिन तू फिर पूछने चला आया?” इस पर कादर ख़ान ने उन्हें बताया कि मैं स्क्रिप्ट लिखकर लाया हूँ तो वहाँ मौजूद सभी लोग दंग रह गये।

उनके डॉयलॉग्स को पढ़कर नरेंद्र बेदी ने उन्हें सीने से लगा लिया और जो शूटिंग एक महीने बाद शुरू होने वाली थी वो एक हफ्ते बाद ही शूरू कर दी गयी। कादर खान को इस फ़िल्म के लिये 1500 रूपये दिये गये। साल 1972 में आई इस फिल्म ने बतौर राइटर कादर ख़ान के रास्ते भी खोल दिए। कुछ और फ़िल्में लिखने के बाद साल 1974 में कादर ख़ान को सुपरस्टार राजेश खन्ना की फिल्म ‘रोटी’ के डायलॉग लिखने का मौका मिला, जो उनके करियर लिये एक टर्निंग प्वाइंट बना।

मज़े की बात कि फ़िल्म के डायरेक्टर मनमोहन देसाई को तब कादर ख़ान पर कोई ख़ास भरोसा नहीं था, इसलिए उन्होंने पहले कादर ख़ान को अपनी फ़िल्म का क्लाइमेक्स लिखने को दिया और कहा कि “तुम मियाँ भाई लोग शेरो- शायरी और मुहावरे तो बढ़िया कर लेते हो लेकिन मुझे ऐसे डायलॉग चाहिए जिस पर दर्शक ताली बजाने पर मजबूर हो जाये।” कादर ख़ान स्क्रिप्ट लेकर घर आये और पूरी रात जागकर उसके डॉयलॉग लिख डाले और अगले दिन शाम को मनमोहन देसाई के घर पहुँच गये। मनमोहन उस वक़्त मोहल्ले के बच्चों के साथ क्रिकेट खेल रहे थे। कादर ख़ान को दूर से ही देखकर बड़बड़ाये कि “लगता है उल्लू के पठ्ठे को समझ में नहीं आया, फिर आ गया।”

कादर ख़ान ने जो बात नरेन्द्र बेदी से कही थी वही मनमोहन देसाई से भी कही कि “आपने मुझे गाली दी है और मेरे बारे में ये लफ़्ज़ बोले हैं, सर मैं लिप रीडिंग कर सकता हूँ।” इस वाकये को बाद में फ़िल्म नसीब में उन्होंने एक सीन में इस्तेमाल भी किया था जब हीरोइन विलेन की बातें लिप रीडिंग से समझ लेती है। ख़ैर कादर ख़ान ने बताया कि वे डॉयलॉग लिखकर लाये हैं तो मनमोहन देसाई चकरा गये कि इतनी जल्दी कैसे लिख लिया।

वे फौरन कादर ख़ान को लेकर घर के अंदर गये और कहा कि सुनाओ क्या लिखा है? कादर ने स्क्रिप्ट पढ़नी शुरू की और मनमोहन कभी उछलकर सोफे पर बैठते तो कभी बेड पे, उन्हें कादर ख़ान के डायलॉग इतने पसंद आए कि उन्होंने उसी समय कादर से कुल 10 बार उसे सुना।

जिसके बाद वे घर के अंदर गए, अपना तोशिबा टीवी और ब्रेसलेट कादर ख़ान को उसी समय तोहफ़े में दे दिया। साथ ही पूछा कि “पेमेंट कितना लोगे क्योंकि मैं ज़्यादा नहीं दे पाऊंगा।” कादर ख़ान ने इससे पहले जो फ़िल्म साइन की थी उसके लिये उन्हें 21 हज़ार मिले थे, उन्होंने वही पेमेंट बता दिया, इस पर मनमोहन ने हँसते हुए कहा कि “मनमोहन देसाई का राइटर और 21 हज़ार? मैं तुम्हें एक लाख, इक्कीस हज़ार रुपए देता हूँ।”

इसके बाद मनमोहन देसाई ने फ़िल्म इंडस्ट्री के सभी दिग्गजों को फोन लगाकर कादर ख़ान की तारीफ़ करते हुए कहा कि कादर ख़ान के रूप में एक ज़बरदस्त राइटर मिला है, राइटिंग क्या होती है वो इससे सीखनी चाहिए।

कादर ख़ान बतौर विलेन जितने हिट रहे उतने ही वे कॉमेडियन और कैरेक्टर ऐक्टर के तौर पर भी पसंद किये गये। कादर बताते हैं कि विलेन के रोल न करने का फैसला उन्होंने अपने परिवार और अपने स्टूडेंट्स की वज़ह से लिया था।

दरअसल कादर खान के बेटों को स्कूल में अन्य स्टूडेंट्स चिढ़ाया करते थे कि वे विलेन के बेटे हैं। यहां तक कि एक बार उनके बड़े बेटे का इस चक्कर में किसी लड़के से झगड़ा भी हो गया था। इधर कादर खान की पत्नी भी उन्हें फिल्मों में विलेन बनने से रोकने लगी थीं। इतना ही नहीं उनके कॉलेज के स्टूडेंट्स भी उन्हें पॉज़िटिव रोल करने के लिये दबाव देने लगे थे।

बतौर कॉमेडियन कादर खान पहली बार जितेंद्र , श्रीदेवी की 1983 में आई सुपर हिट फिल्म हिम्मतवाला में नज़र आये थे। इस फिल्म में उनके द्वारा निभाया गोपालदास नारायणदास का कॉमिक किरदार दर्शकों ने इतना पसंद किया कि इसके बाद वे जितेंद्र की कई फिल्मो में कॉमेडी करते नज़र आये।

उस दौरान अगर वे विलेन भी बनते थे तो उसमें कॉमेडी का टच ज़रूर रहता था, धीरे-धीरे कादर ख़ान बतौर कॉमेडियन मशहूर हो गये। एक दौर तो ऐसा भी था जब कादर खान कई हीरो से ज़्यादा लोकप्रिय थे और पोस्टर पर उनके चेहरे को ही हाइलाइट किया जाता था। शक्ति कपूर, असरानी और अरुणा ईरानी के साथ उनकी जोड़ी को दर्शकों ने ख़ूब पसंद किया था।

90 के दशक में गोविंदा की फ़िल्मों में भी वे ख़ूब नज़र आये। कादर ख़ान 90 के दशक तक सक्रिय रहे थे और उसके बाद के दो दशकों तक भी वे चुनिंदा फ़िल्मों में नज़र आते रहे थे। कादर खान ने लगभग 44 वर्षों के फ़िल्मी करियर में 400 से ज़्यादा फिल्मों में ऐक्टिंग की है।

आखिरी बार वे 2015 में आई फिल्म ‘हो गया दिमाग का दही’ में नजर आए थे। राइटर के तौर पर बात की जाये तो कादर खान ने 250 से ज्यादा फिल्मों के संवाद लिखे थे। 90 के दशक तक आते-आते कादर ख़ान ने लिखना तो कम कर दिया लेकिन बतौर ऐक्टर वे डेविड धवन की फ़िल्मों में दिखाई देते रहे, हालांकि तब भी अपने डायलॉग वो ख़ुद ही लिखा करते थे।

अवाॅर्ड की बात करें तो कादर ख़ान को साल 1982 में ‘मेरी आवाज़ सुनो’ के लिए और साल 1993 में ‘अंगार’ के लिये बेस्ट डॉयलॉग राइटर का फिल्मफेयर अवार्ड मिला था। इसके अलावा साल 1984 से लेकर 1999 के बीच वे 9 बार बतौर कॉमेडियन फिल्मफेयर अवाॅर्ड की ओर से नोमिनेट हुए थे जिसमें साल 1991 में ‘बाप नम्बरी बेटा 10 नम्बरी’ के लिए उन्हें यह अवार्ड हासिल भी हुआ था।

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