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वी शांताराम को समाज की विसंगतियों पर प्रहार करने वाली यथार्थवादी फिल्में बनाने के अलावा शास्त्रीय नर्तकों और हिंदुस्तान के विभिन्न डांस फॉर्म्स पर फिल्में बनाने के लिए भी जाना जाता है. उनकी ‘झनक झनक पायल बाजे’ (1955) को लेकर खुद शास्त्रीय गायक पंडित जसराज कई बार अपनी प्रसन्नता जाहिर करके कह चुके हैं कि शांताराम (जो उनके ससुर थे) ने न सिर्फ सिनेमा में कत्थक का सर ऊंचा रखा बल्कि उसे लोकप्रिय भी बनाया.
बेहद मामूली शिक्षा हासिल करने वाले वी शांताराम युवावस्था के दिनों में रेलवे में दिहाड़ी मजदूरी किया करते थे और कुछ अरसे के लिए उन्होंने गंधर्व नाटक कंपनी नामक एक मराठी थियेटर ग्रुप में परदा उठाने-गिराने का काम भी किया था (कर्टेन पुलर). बाद के सालों में उन्होंने बाबूराव पेंटर की महाराष्ट्र फिल्म कंपनी में भरती ली और यहीं पर न सिर्फ पेंटर बाबू से फिल्ममेकिंग विधा सीखी बल्कि मूक फिल्मों में बतौर अभिनेता भी काम किया.
शांताराम कहा करते थे कि आंखों की रोशनी खो जाने के बाद उन्होंने कुछ ऐसे रंग देखे जो उन्होंने इससे पहले कभी नहीं देखे थे और इसी वजह से उन्होंने ‘नवरंग’ को बेहद रंगीन और भड़कीला बनाया.
लंबे अरसे तक फिल्म विधा को साधने के बाद उन्होंने न सिर्फ प्रभात और राजकमल स्टूडियो की स्थापना की बल्कि कई महान फिल्मों का निर्देशन भी किया. ‘डॉक्टर कोटणीस की अमर कहानी’, ‘झनक झनक पायल बाजे’, ‘दो आंखें बारह हाथ’ और ‘नवरंग’ ऐसी ही फिल्में थी. ‘दो आंखें बारह हाथ’ का निर्देशन करने के अलावा उन्होंने इसमें जेलर का किरदार भी निभाया और अपनी तीसरी पत्नी संध्या (जिन्होंने अपने पूरे करियर में मुख्यरूप से शांताराम की फिल्मों में ही काम किया था) को एक बार फिर बतौर नायिका लिया. कुछ कैदियों को सुधारने की कोशिश दिखाती इस फिल्म की कहानी न सिर्फ आज भी अपनी रोचकता बनाए हुए है बल्कि फिल्म के लिए वसंत देसाई का रचा प्रार्थना – गीत ‘ऐ मालिक तेरे बंदे हम’ भी न जाने कितने स्कूलों और जेलों में दशकों तक गाया जाता रहा है.
इसी ‘दो आंखें बारह हाथ’ फिल्म के दौरान – जिसमें बारह हाथ छह कैदियों की तरफ इशारा करते हैं और दो आंखें जेलर यानी खुद वी शांताराम की तरफ – उन्होंने अपनी आंखों की रोशनी खो दी थी. कहते हैं कि जब 57 वर्षीय शांताराम क्लाइमेक्स के लिए सांड के साथ अपनी लड़ाई शूट कर रहे थे तो इतनी बुरी तरह जख्मी हुए कि कुछ वक्त के लिए अंधे ही हो गए. लेकिन किस्मत से कुछ वक्त बाद ही उनकी आंखों की रोशनी लौट आई और उन्होंने अपने अंधेरे दिनों से प्रभावित होकर ‘नवरंग’ बनाई. खुद शांताराम कहा करते थे कि आंखों की रोशनी खो जाने के बाद उन्होंने कुछ ऐसे रंग देखे जो उन्होंने इससे पहले कभी नहीं देखे थे और इसी वजह से उन्होंने ‘नवरंग’ को बेहद रंगीन और भड़कीला बनाया.