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आज नई पीढ़ी अपने माता -पिता को न केवल बोझ समझती है बल्कि हमेशा अपनी जिम्मेदारियों से बच निकलने का रास्ता ढूंढ़ने में लगी रहती है। लेकिन अपनी आवश्यकता होने पर वृद्ध माता -पिता की जीवन भर की पूंजी भी हड़पने में नहीं हिचकिचाती।यह प्रवृत्ति आधुनिक शिक्षा (जैसे आई आई टी,आई आई एम, इत्यादि) प्राप्त बच्चों में अधिक है।जिस किसी भी पुराने मुहल्ले या आवासीय परिसर से गुजरें,दरवाजे और खिड़कियों से बुजुर्गों की पथराती आंखें अपने उन बच्चों की राह तकती दिखाई देतीं हैं जिन्हें पढ़ा -लिखा कर योग्य बनाने, आत्मनिर्भर बनाने और समाज में सम्मानजनक स्थान प्राप्त करने बनाने में उन्होंने अपना तन,मन,धन…सब कुछ लुटा दिया था। कटु है,पर सच्चाई यही है।
पिताजी के अचानक घर आ जाने से पत्नी तमतमा उठी,
लगता है,बूढ़े को पैसों की ज़रूरत आ पड़ी है, वर्ना यहाँ कौन आने वाला था…
अपने पेट का गड्ढ़ा भरता नहीं,घरवालों का कहाँ से भरोगे ?
मैं नज़रें बचाकर दूसरी ओर देखने लगा।पिताजी नल पर हाथ-मुँह धोकर
सफ़र,, की थकान दूर कर रहे थे।इस बार मेरा हाथ कुछ ज्यादा ही तंग हो गया।
बड़े बेटे का जूता फट चुका है वह स्कूल जाते वक्त रोज भुनभुनाता है।
पत्नी के इलाज के लिए पूरी दवाइयाँ नहीं खरीदी जा सकीं।
बाबूजी को भी अभी आना था घर में बोझिल “चुप्पी” पसरी हुई थी खाना खा चुकने पर,, पिताजी ने
मुझे पास बैठने का इशारा किया।
मैं शंकित था कि कोई आर्थिक समस्या लेकर आये होंगे.
पिताजी कुर्सी पर उठ कर बैठ गए एकदम बेफिक्र…!!!
“ सुनो ” कहकर उन्होंने मेरा ध्यान अपनी ओर खींचा।
मैं सांस रोक कर उनके मुँह की ओर देखने लगा।
रोम-रोम कान बनकर,,अगला वाक्य सुनने के लिए चौकन्ना था।वे बोले…
“ खेती के काम में घड़ी भर भी फुर्सत नहीं मिलती।
इस बखत काम का जोर है।रात की गाड़ी से वापस जाऊँगा।
तीन महीने से तुम्हारी कोई चिट्ठी तक नहीं मिली…
जब तुम परेशान होते हो, तभी ऐसा करते हो।
उन्होंने जेब से सौ-सौ के पचास नोट निकालकर
मेरी तरफ बढ़ा दिए, “रख लो।तुम्हारे काम आएंगे।
धान की फसल अच्छी हो गई थी।घर में कोई दिक्कत नहीं है तुम बहुत कमजोर लग रहे हो।
ढंग से खाया-पिया करो बहू का भी ध्यान रखो।
मैं कुछ नहीं बोल पाया।शब्द जैसे मेरे हलक मे फंस कर रह गये हों ।
मैं कुछ कहता
इससे पूर्व ही पिताजी ने प्यार से डांटा
“ले लो, बहुत बड़े हो गये हो क्या ..?”
“ नहीं तो।” मैंने हाथ बढ़ाया।
पिताजी ने नोट मेरी हथेली पर रख दिए।
बरसों पहले पिताजी मुझे स्कूल भेजने के लिए
इसी तरह हथेली पर अठन्नी टिका देते थे,पर तब मेरी नज़रें ..आजकी तरह झुकी नहीं होती थीं।
दोस्तों एक बात हमेशा ध्यान रखे…
माँ बाप अपने बच्चो पर बोझ हो सकते हैं पर
बच्चे उन पर बोझ कभी नही होते है
पिता और पुत्र तो हमेशा एक दूसरे की कष्ट और दर्द समझते है पर पुत्र की पत्नी कभी नहीं समझती, पिता हमेशा अपने पुत्र का भला चाहता है पिता अपने पुत्र के पास भाव में जाता है आभाव में नहीं l
बेटे को आपने २५-३० सालों तक पाला-पोसा, शिक्षा देकर नौकरी के लायक बनाया या उसे जीवन-यापन के लिए पारिवारिक ब्यवसाय/खेती-बाड़ी दी। फिर भी वह शादी के बाद पत्नी के कहने में आकर माता-पिता के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से विमुख हो जाता है तो मैं इसमें अपने पालन-पोषण और प्रशिक्षण में कमी मानता हूं।जीवन में पत्नी का अलग स्थान है और माता-पिता का अलग।… अगर बेटा इनमें संतुलन स्थापित नहीं कर पाता तो हमारे प्रशिक्षण में ही कमी मानी जानी चाहिए। सच तो यह है कि हम ही अपने बेटे को इतना प्यार देते हैं लेकिन उनकी परिवार के प्रति,समाज के प्रति और देश और मानवता के प्रति कुछ जिम्मेदारियां हैं,हम नहीं बताते।तभी हमारी नयी पीढ़ी स्वार्थी और आत्मकेंद्रित हो रही है।