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अरहर की दाल और उसके बनाने का देशी तरीका

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अरहर शुद्ध शब्द है पर बोलचाल के भाषा में बिहार में रहर ही उपयोग में होता है। दलहन की फसलों में सबसे ज्यादा महंगा। मानसून के समय खेतों में इसकी बुवाई होती है अंग्रेजी के महीने से समझे तो जुलाई के अंतिम सप्ताह और अगस्त का प्रथम सप्ताह होता है साथ में भदई फसल भी लगती है जिसमें मक्का ज्वार बाजरा शामिल होता है। अगस्त के प्रथम सप्ताह में खेतों में जी अरहर की बुवाई होती है वह मार्च के अंतिम सप्ताह या अप्रैल के मध्य में तैयार होता है पूरे 9 महीने का समय लगता है अरहर की दाल तैयार होने में।

इसी कारण से अरहर की फसल अब धीरे-धीरे सिमटने लगी है जिस कृषिगत भूमि पर एक फसल अरहर की तैयार होती है इस भूमि पर किस दो तीन फैसले तैयार कर लेता है यह बात अलग है कि अरहर के फसल में अन्य फसलों की अपेक्षा मेहनत काम है। ये एकदम देशी अरहर है और दाल बनाने का एकदम देशी तरीका है! हमारे यहां पर दो ही तरह की दाल मुख्य रूप से खाई जाती है। प्रतिदिन अरहर की दाल और कभी कभी स्वाद बदलने के लिए या अतिथि आने पर, शुभ कार्य में उड़द की दाल बनाई जाती थी। इन दोनों दालों में सहायक दाल के रूप में मटर की दाल डाली जाती थी।

खेती तो अरहर, उड़द, मसूर, मूंग, मटर, चना सबकी की जाती थी परन्तु खाने में यही दो दाल मुख्य रूप से खाई जाती थी। मसूर दाल को सबसे हेय दृष्टि से देखा जाता था वो बोई ही बेचने के लिए जाती थी खाने में कभी प्रयोग नहीं होती थी कभी कभार यदि उड़द और अरहर की फ़सल गड़बड़ हो जाए तो भले ही मसूर का उपयोग होता था लेकिन मसूर की दाल खाना थोड़ा गरीबी की श्रेणी में रखा जाता था इसलिए वो दाल जब खाने की नौबत आ जाए तो पड़ोसी को पता नहीं चलने दिया जाता था कि बदनामी होगी।

गर्मियों के मौसम में गांव के बाहर वाला सामुहिक खलिहान गांव के लोगों के खेतों से आयी दलहन की फ़सल से भर जाता था। जिसकी भी फ़सल खेत में पक कर तैयार होती थी वो सुबह शाम फ़सल काटता था और दोपहर में घर आकर भोजन करके थोड़ा आराम करके अपने हिस्से के खलिहान में उगी घास फूस को छील कर साफ करता था फिर गोबर और चिकनी मिट्टी घोलकर खलिहान की लिपाई करके साफ सुथरा किया जाता था ताकि अन्न में कचरा न आ सके। जब सब की फ़सल कट जाती थी और खलिहान पूरा साफ हो जाता था तब खलिहान में लाकर फ़सल रखी जाती थी।

मसूर, चना, मटर,अलसी इत्यादि छोटे पौधे की फ़सल होती थी तो इसे फैला दिया जाता था ताकि दिन भर धूप लगे और सूख जाए फिर शाम को बैलों की जोड़ी उस पर चलाई जाती थी जिसे दांउरी कहते थे। इस तरह से काफी हद तक डंठल से दाने अलग हो जाते थे। जो दाने लगे रहते थे उन्हें डंडे से पीटकर अलग कर दिया जाता था।

अरहर के पेड़ बड़े होते थे इसलिए खेत से काटकर वही बोझ बनाया जाता था जिसे हमारी तरफ भीरी कहते हैं। अरहर की सभी भीरी खेत से उठाकर लाकर खलिहान में एक दूसरे से जोड़कर खड़ा कर दिया जाता था इससे वो कम जगह घेरती थी और सूखती भी रहती थी ।

जब छोटे पौधों वालीं सभी फ़सल के दाने निकाल कर साफ करके घर उठा ले जाते थे और खलिहान काफी हद तक खाली हो जाता था तब आराम से अरहर की पिटाई की जाती थी। अरहर को पीटने के लिए दो मुहँ वाला गुलेल की तरह दिखने वाला एक विशेष प्रकार के डंडे का उपयोग होता था जिसे छकनी कहते हैं।

जब सारी अरहर की डंठल से दाने निकल जाते थे और उन्हें साफ करके रख लिया जाता था तब इस अरहर से दाल बनाने की प्रक्रिया शुरू होती थी। सारी अरहर को पहले मिट्टी की कड़ाही में सेंक लिया जाता था और फिर उन्हें चकिया में दलकर दाल बनाते थे।

चित्र में जो दिख रही है वो चकिया ही है। दलने वालीं चकिया और पीसने वालीं चक्की यानी जांता अलग अलग होता है। दलने के बाद दाल बनाने की प्रक्रिया के समय मे कुछ दाल जो टूट जाती थी उसे भिगोकर गेहूं के आटे में मिलाकर रोटी बनाई जाती थी जिसे चुनी की रोटी कहते थे।

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