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आधुनिकता की अंधी दौड़ में त्याग दी अपनी परंपरा

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हमारे समाज में विवाहित महिलाओं ने माथे पर पल्लू तो छोड़िये,साड़ी पहनना तक छोड़ दिया … दुपट्टा भी गायब ? तिलक बिंदी तो हमारी पहचान हुआ करती थी.. सनातनी लोग कोरा मस्तक और सूने कपाल को तो अशुभ, अमंगल और शोकाकुल होने का चिह्न मानते थे अपने घर से निकलने से पहले तिलक लगाना तो छोड़ा ही,लेकिन हमारी महिलाओं ने भी आधुनिकता और फैशन के चक्कर में और फॉरवर्ड दिखने की होड़ में माथे पर बिंदी लगाना तक छोड़ दिया ।

हमारे यहां विवाह, सगाई जैसे संस्कारों में पारंपरिक परिधान छोड़कर….लज्जाविहीन प्री-वेडिंग जैसी फूहड़ रस्में करने लगे और जन्मदिवस, वर्षगांठ जैसे अवसरों को ईसाई बर्थ-डे और एनिवर्सरी में बदल दिया है ।

वही दूसरे मजहब में बच्चा जब चलना सीखता है तो बाप की उंगलियां पकड़ कर इबादत के लिए मस्जिद जाता है और जीवन भर इबादत को अपना फर्ज़ समझता है, हमारे यहां तो लोगों ने तो स्वयं ही मंदिरों में जाना 🛕 छोड़ दिया, जाते भी हैं तो केवल 5-10 मिनट के लिए तब, जब भगवान से कुछ मांगना हो अथवा किसी संकट से छुटकारा पाना हो ।

हमारे यहाँ बच्चे कान्वेंट से पढ़ने के बाद Poem सुनाते हैं तो माता पिता का सर गर्व से ऊंचा होता है, होना तो यह चाहिये कि वे बच्चे नवकार मंत्र या कोई श्लोक याद कर सुनाते तो आपको गर्व होता ।

दूसरे मजहब का लड़का कॉन्वेंट से आकर भी उर्दू अरबी सीख लेता है और धार्मिक पुस्तक पढ़ने बैठ जाता है, और हमारे यहां बच्चा न पाठशाला में पढ़ता है और संस्कृत तो छोड़िये, शुद्ध हिंदी भी उसे ठीक से नहीं आती, हमारे पास तो सब कुछ था – संस्कृति, इतिहास, परंपराएं ! हम ने उन सब को तथाकथित आधुनिकता की अंधी दौड़ में त्याग दिया और हम लोग तो पीछा छुड़ाएं बैठे हैं अपनी जड़ों से दूसरे मजहब में लोगों ने अपनी जड़ें न तो कल छोड़ी थीं और न ही आज छोड़ने को राजी हैं ।

हम लोगों को तो स्वयं ही तिलक, शिखा आदि से और आपकी महिलाओं को भी माथे पर बिंदी, हाथ में चूड़ी और गले में मंगलसूत्र – इन्हें धारण करना अनावश्यक लगने लगा है । अपनी पहचान के संरक्षण हेतु जागृत रहने की भावना किसी भी सजीव समाज के लोगों के मन में स्वत:स्फूर्त होनी चाहिये, उसके लिये आपको अपने ही लोगों को कहना पड़ रहा है।

जरा विचार कीजिये कि यह कितनी बड़ी विडंबना है ! यह भी विचार कीजिये कि अपनी संस्कृति के लुप्त हो जाने का भय आता कहां से है और असुरक्षा की भावना का वास्तविक कारण क्या है?

हमने अपनी दिनचर्या बदली…..खानपान पहनावा सब वस्ल लिया एक समय था जब आपकी वेशभूषा से कोई भी बता देता था कि ये मारवाड़ी / वैश्य परिवार से है….हम लोगों ने अपनी वेशभूषा छोड़ी, आपने अपना खान-पान बदला, लहसुन प्याज आलू खाना आपके लिए आम बात हो गई, शराब व मांसाहार भी आदतें हो गईं ?

यदि आपकी अपनी परंपराओं पर पकड़ मजबूत है, तो ज़माना कितना हो आधुनिक क्यों ना हो जाये आप संस्कारी ही रहेंगे। सनातन धर्म के इस हांस और परंपराओं नाश का ये विचारणीय विषय का जो चरित्र चित्रण किया है वो हृदय स्पर्शी है।

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