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सत्यम् शिवम् सुंदरम्

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सत्यम अर्थात सत्य और यम, परम सत्य किया है, मृत्यु और परम सत्य, इस मृत्यु से जो जुड़ा है वह है शिवा, जिन्होने यम को भी हराया था, सत्यम अर्थात सत्य, सत्य वह नहीं जो आप जानते है या देखते है बल्कि जो नहीं है वह सत्य है, जो आपको दिखता है वह में नहीं हूँ, और जो नहीं दिखता वह में हूँ !आपका या हमारा सत्य नहीं अपितु परम सत्य या यथार्त, इस यथार्त को समझने के लिया आपको “में ” से मिटना होगा, इस सच्चाई को जानने के लिए आपको पूरी तरह से अनुपस्थित रहना होगा।

शिवम्, शिव और अहम् अर्थात में शिव हूँ परन्तु में शिव हूँ मे “में” आपका अहंकार नहीं होना चाहिए अपितु “में” एकाकी होना चाहिए आत्मा और परमात्मा का और यह तभी जागृत होगा जब हम समझेंगे कि वह सब अच्छा है, वह सब मूल्यवान है, वह सब जो आप में सबसे कीमती है, परम अच्छा है! सुन्दर, सत्यम ही सुन्दर है और शिवम् हे सुन्दर है, इन दोनों से पहले या बाद मे कुछ भी भी सत्य नहीं है और न ही कुछ सुन्दर है, सुन्दर है तो सिर्फ परम सत्य और परम ज्ञान, आपने आँखों से दिखने वाली सुंदरता हर तरफ देखी होगी लेकिन सबसे बड़ी सुंदरता है समग्रता, रहस्यवाद की तीव्रता को देखना। वह चेतना के अस्तित्व में सबसे बड़ा फूल है।

जगत के उपादान कारण परब्रह्म का अस्तित्व – स्वरूप, समष्टि-रूप, नित्य, चेतन, अखंड, अनंत, अचल, अरूप, अकर्ता, अभोक्ता, अविनाशी, निर्गुण निराकार, सर्वव्यापक-सर्वव्याप्त, गुणातीत,  कालातीत, मायातीत, निर्लिप्त, अनासक्त और सम परमचैतन्य मैं-आत्मा व्यष्टि रूप में सभी प्राणियों के हृदय में विद्यमान हूं। मुझ-आत्मा का न तो तो कोई रूप है और न ही आकार है, न जन्म होता है और न ही मृत्यु होती है। प्रकृति के पंचतत्वयुक्त शरीरों के सूक्ष्म से स्थूल और स्थूल से सूक्ष्म शरीरों में परिवर्तनशीलता का नाम जन्म-मृत्यु है। तुम-आत्मा का कभी विनाश नहीं होता।

देवस्वरूप प्रथम पूज्यनीय प्रकृतिजन्य मरणधर्मा शरीरधारी सभी के माता पिता तो समस्त शरीरों के जन्म निमित्त कारण होते हैं परन्तु शरीरों में आत्मा के प्राकट्य का उपादान कारण तो एक परब्रह्म ही है।
मुझे परमचैतन्य आत्मसत्ता से न तो तुम-आत्मा पृथक हो और न ही मैं-आत्मा तुमसे पृथक व भिन्न हूं।मन, बुद्धि, अहंकार और इन्द्रियों द्वारा जिस प्रकृतिजन्य मरणधर्मा और उत्पत्ति- विनाशशील शरीर और संसार को सत्य मानते हुए अज्ञानतावश मैं-मेरा मानकर जगत व्यवहार करते हो वह मिथ्या है।सत्य तो तुम नित्य चेतन अजन्मा अविनाशी आत्मा हो।

मन ही जगत की उत्पत्ति का कारण है। यदि माता पिता का मन न होता तो इस संसार में न तो शरीर रूप में मैं विद्यमान होता और न ही तुम होते। न ही स्वजन-परिजन, संतानें,भू-भवन,धन संपदा आदि होते।न ही कामनाएं होतीं,न इतनी वैज्ञानिक उन्नति और प्रगति होती।न वैभव ऐश्वर्य, यश-कीर्ति,मान सम्मान की अभिलाषाएं होतीं।न स्तेय(चोरी प्रवृत्ति) और परिग्रह(अनावश्यक संचय) लोभ राग द्वेष ईर्ष्या,पाप, अपराधी प्रवृत्ति जैसे दोष दुर्गुण विकार आदि होते।

उक्तदशा में सभी देहाभिमानी नहीं वरन् प्रेम दया करुणामय स्वाभिमानी सत्यसमर्पित स्वाभाविक जीवन जी रहे होते।न कहीं घृणा होती न राग-द्वेष, वैमनस्यता होती। वह परब्रह्म सदैव देता रहा है और दे रहा है। उसमें लेने की भावना ही नहीं है अतः वह सर्वकल्याणकारी है। अहम्-वश जिसे तुम स्वयं के प्रति ईश्वर का अहितकर अथवा दुःखमय विरोधी निर्णय या परिणाम समझते हो उसके पीछे भी अपरोक्ष रूप में तुम्हारा ही हित जुड़ा होता है।

शास्त्रों में चार पुरुषार्थों (धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष) का उल्लेख किया गया है। जब तत्व की दृष्टि से तुम स्वयं को ही नहीं जानते तो भला धर्म को भी कैसे जान सकते हो?आज तुम आत्मा को स्वयं का बोध और अनुभव न होने के कारण ही तुम मनुष्य वास्तविक धर्म से बहुत दूर हो और अज्ञानतावश भिन्न-भिन्न मत-पंथों में विभक्त होकर पशुवत कतारबद्ध होकर मात्र पाखंडों और आडंबरों की निरर्थक क्रियाओं में भटक रहे हो और एक दूसरे से शत्रुता व्यवहार कर रहे हो और इससे तुम्हारा अहंकार पुष्ट होने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हो रहा है। वास्तविक धर्म तो स्वधर्म (आत्मधर्म) है जिसके लिए मन को स्वयं-आत्मा में विलीन करके मात्र स्वभाव (आत्मभाव) में स्थितप्रज्ञ होना होता है।जिसके उपरांत ही तुम्हें अपने सर्वव्यापक सर्वव्याप्त अजन्मा अविनाशी स्वरूप का अनुभव और स्वधर्माचरण हो सकता है।

सच्चे अर्थों में पुरुषार्थ का दूसरा चरण “अर्थ” ज्ञान के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। सामाजिक व्यवस्था के संचालन हेतु वस्तु पदार्थों से जिस मुद्रा का सृजन किया जाता है वह केवल शारीरिक व मानसिक सुख के साधन उपलब्ध करा सकते हैं, उनसे आत्मसुख भी प्राप्त हो ऐसा कहना उचित नहीं होगा। प्रायः धन ही स्वयं आत्मा का बंधन बन जाता है। अतः मुद्रा विनिमय को प्रकृति विनिमय व्यवस्था तो स्वीकार किया जा सकता है लेकिन अर्थ व्यवस्था की संज्ञा दिया जाना उचित नहीं होगा। अतः ज्ञान ही सच्चे अर्थों में अर्थ स्वीकार किया जाना चाहिए।

पुरुषार्थ के तृतीय चरण “काम” से तात्पर्य स्वयं आत्मा को अनुभव करने की गहन पिपासा या आप्तकामता से है न कि मायाजनित उत्पत्ति विनाश शील सांसारिक वस्तु पदार्थों की कामना से क्योंकि आत्मतत्व के प्राप्त होने पर सबकुछ प्राप्य अनुभव होता है। आप्तकाम होने के पर ज्ञान की प्राप्ति के उपरांत स्वबोध(आत्मबोध) होता है जिससे परमलक्ष्य “मोक्ष” स्वत: सिद्ध होता है क्योंकि मन के निज आत्मस्वरूप में स्थितप्रज्ञता का नाम मोक्ष है।

इस संसार में जबतक तुम-मनुष्य अहंकार का आश्रय लेकर शरीर नाम रूप के एकदेशीय मनोभाव में जगत व्यवहार करते रहोगे तबतक मायाजन्य अज्ञानता का बंधन भी बना रहेगा परन्तु जिसदिन स्वयं के सर्वदेशीय स्वरूप भाव होने का बोध और अनुभव होगा, उसी दिन त्रिनेत्र खुलेगा।समस्त क्लेशों और विकारों से मुक्त होकर स्वयं के सत्यम् शिवम् सुंदरम् स्वरूप भाव को प्राप्त हो जाओगे आत्मा ही सत्य है, आत्मा ही शाश्वत शिव है और आत्मा ही सुन्दर है।

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