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साल था 1734, स्थान लाहौर। हकीकत राय नाम का एक 10 साल का हिन्दू बच्चा आम दिनों की तरह मदरसे में अन्य छात्रों के साथ पढ़ रहा था। वो हाल में ही वहां फ़ारसी का शिक्षण लेने के लिए आया था। कुछ दिनों में वसंत पंचमी का पर्व था और उसी विषय पर उसकी झड़प कुछ मुस्लिम बच्चों से हो गयी। मुस्लिम बच्चों ने माता सरस्वती के विरुद्ध कुछ अपशब्द कहे जिसका पूरी कक्षा ने समर्थन कर दिया। हकीकत राय इसे सहन नहीं कर सका और उसने अकेले ही उन सभी बच्चों का विरोध किया।
बात बढ़ती देख कर हकीकत राय और अन्य बच्चों को मदरसे के मौलवी के पास ले जाया गया। वहाँ सभी मुस्लिम बच्चों ने ये झूठ कह दिया कि हकीकत ने बीबी फातिमा को अपशब्द कहा है। हकीकत की तरफ से बोलने के लिए कोई साक्ष्य था नहीं और इसे जघन्य अपराध मान कर मौलवी ने बिना सच जाने ही हकीकत राय को सजा देने का निश्चय किया।
मौलवी द्वारा काजी को इसकी शिकायत की गयी और इसे इस्लाम की तौहीन मान कर उस छोटे से बच्चे को सरे आम मौत की सजा सुना दी गयी। उसके परिजनों ने तत्कालीन राजा जकारिया खान से रहम की गुहार लगाई पर उसने भी बिना सच जाने इस सजा को जायज बताया। सजा का दिन जान बूझ कर वसंत पंचमी का ही रखा गया।
उसका सर कलम करने से पहले उसके सामने एक विकल्प रखा गया कि यदि वो इस्लाम कबूल कर ले तो उसकी सजा माफ़ हो सकती है, किन्तु हकीकत ने ऐसा करने से मना कर दिया। सन 1734 के दिन जब पूरा देश जिस दिन सरस्वती पूजा का पर्व मना रहा था उसी दिन लाहौर में केवल 10 वर्ष के उस छोटे से बच्चे की गर्दन काट दी गयी।
कहते हैं अपने अंतिम समय में उसकी माँ ने कहा कि वो इस्लाम कबूल कर ले, कम से कम वो जीवित तो रहेगा। पर उस छोटे से बच्चे हकीकत राय ने हँसते हुए खुद ही अपना सर जल्लाद के सामने झुका दिया।
भारत के विभाजन से पहले तक हर वसंत पंचमी के दिन हिन्दू मुस्लमान दोनों लाहौर में हकीकत राय की समाधि पर इकट्ठा होते थे। कोई आश्चर्य नहीं है कि हकीकत राय जैसे स्वाभिमानी हिन्दुओं के कारण ही सनातन धर्म इतने कठिन समय में भी आक्रांताओं के समक्ष सर उठाये खड़ा रहा।
वीरता की यह सत्यकथा गीता प्रेस गोरखपुर अपनी लघु पुस्तकों में बार बार प्रकाशित करता रहा है । साथ ही ऐसी और भी सत्यकथाए । हिंदू धर्म की रक्षा के लिए प्राण बलिदान किया इन वीरों ने । ये अमर बलिदानी हरदम याद किए जाएँगे ।