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चालीस से पचास तक के दशक में भारत का पहलवान

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हिंद केसरी व ‘रूस्तम -ए – हिंद’ मंगला राय (शाकाहारी वीर ) गाजीपुर जिले के जोगा मुसाहिब गांव में 1916 के अगस्त महीने में पैदा हुए मंगला राय को पहलवानी विरासत में मिली थी। उनके पिता रामचंद्र राय और चाचा राधा राय अपने समय के नामी पहलवान थे।

बताया जाता है कि मंगला राय के शुरूआती दिन अभावों में बीते। पिता और चाचा रोजी-रोटी की जुगाड़ में बर्मा चले गए। दोनों भाई वहां भी कुश्ती का रियाज किया करते थे। मंगला राय के चाचा राधा राय काफी बेहतर पहलवान थे। उन्होंने ही मंगला को अखाड़े में दांव-पेंच सिखाना शुरू किया था.

मंगला राय बहुत ही मजबूत कद-काठी के थे। उनका वजन 131 किलो था, जबकि लंबाई 6 फीट 3 इंच। वे रोज चार हजार बैठकें और ढाई हजार दंड लगाते थे। इसके बाद प्रतिदिन अखाड़े में 25 धुरंधर पहलवानों से तीन बार कुश्ती लड़ा करते थे। वे शुद्ध शाकाहारी और सात्विक व्यक्ति थे। उनके खाने में आधा किलो शुद्ध देसी घी, आठ से दस लीटर दूध और एक किलो बादाम शामिल होता था। कहा जाता है कि उनका जन्म मंगलवार को हुआ था, सो मां-बाप ने उनका नाम मंगला राय रख दिया।

एक रोज हो गई मंगला की बर्मा के नामी पहलवान ईशा नट से भिड़ंत और देखते ही देखते भोजपुरिया माटी से रचे-बने मंगला राय ने उसे चारों खाने चित्त कर दिया। इसके बाद उन्हें ‘शेर-ए-बर्मा’ की उपाधि मिली। कुछ समय बाद वे पिता और चाचा के साथ अपने गांव लौट आए। यहां आते ही उन्होंने 1933 में उत्तर भारत के मशहूर पहलवान मुस्तफा के साथ कुश्ती लड़ी। इलाहाबाद में हुई यह कुश्ती मंगला राय के जीवन का टर्निंग प्वांइट साबित हुई।

ढेर सारे पहलवानों को अखाड़े में धूल चटा चुके मुस्तफा ने कम उम्र मंगला को हल्के में लिया और यही बात भारी पड़ गई। मंगला राय ने अखाड़े में मुस्तफा के खिलाफ अपने सबसे प्रिय दांव ‘टांग’ और ‘बहराली’ का इस्तेमाल किया। मंगला के जोर के आगे मुस्तफा की एक न चली और वह चित्त हो गया। कुश्ती देख रहे लोगों को काठ मार गया। किसी को इस बात पर विश्वास नहीं हो रहा था कि एक नौजवान ने मुस्तफा जैसे नामी पहलवान को अखाड़े की धूल चटा दी। इसके बाद तो मंगला राय के नाम का पूरे देश में डंका बज गया। उनकी कुश्ती देखने के लिये लोग दूर-दूर से आया करते थे।

आलम ऐसा हुआ कि महज एक साल के भीतर 32 साल के मंगला राय को सौ से ज्यादा कुश्तियां लड़नी पड़ी। उन्होंने अकरम लाहौरी, खड्ग सिंह, केसर सिंह, गोरा सिंह, निजामुद्दीन, गुलाम गौस, टाइगर योगेंद्र सिंह सहित कई मशहूर पहलवानों को हराया। चालीस-पचास के दशक में भारत का शायद ही कोई पहलवान रहा होगा, जिसे मंगला राय ने अखाड़े में शिकस्त न दी हो। 1952 में उन्हें ‘रूस्तम- ए-हिंद’ की उपाधि मिली। वहीं 1954 में ‘हिंद केसरी’ के खिताब से नवाजा गया। उन्होंने रोमानिया के पहलवान जार्ज कंटेस्टाइन को भी हराया था, जिसे ‘टाइगर आॅफ यूरोप’ का खिताब मिल चुका था।

यह कुश्ती पश्चिम बंगाल के हावड़ा में 1957 में हुई थी। तब मंगला राय की उम्र 41 साल हो चुकी थी और जार्ज यूरोप और एशिया के पहलवानों को धूल चटाता हुआ भारत पहुंच चुका था। जार्ज के खिलाफ उतरने के लिए भारत का कोई पहलवान तैयार नहीं हुआ। तब यह बात मंगला राय को अखरी कि यह तो देश की इज्जत का सवाल है। उन्होंने तपाक से जार्ज की चुनौती स्वीकार की और अखाड़े में उतर गए। महज बीस मिनट चली थी यह कुश्ती, और मंगला राय ने जार्ज को उसकी औकात बता दी। आखिरी बार वे 1963 में अखाड़े में उतरे। इस कुश्ती की कहानी भी काफी दिलचस्प है। कहते हैं कि मंगला राय तब अपने गांव जोगा मुसाहिब में ही रहा करते थे।

गाजीपुर में एक बार कुश्ती हुई, तो वे भी वहां पहुंचे। उस वक्त एक कलक्टर था, जिसने अखाड़े में खड़े पहलवान मेहरूद्दीन के खिलाफ मंगला राय को ललकार दिया। लेकिन, उन्होंने ढलती उम्र का हवाला देते हुए लड़ने से इनकार कर दिया। कलक्टर ने उनकी दुखती रग पर हाथ रखते हुए कुछ ऐसी बात कह दी, जो वहां खड़े गाजीपुर के लोगों को लग गई। सबों ने मंगला राय से एक स्वर में कहा, ‘बाबा लड़ जाईं ना त गाजीपुर के इज्जत ना रही।’

इतनी बात सुनते ही बूढ़ी हो चली हड्डियों में जुंबिश हुई और दुनिया के नामी-गिरामी पहलवानों को धूल चटा चुके मंगला राय लंगोट पर हो गए। अखाड़े में दांव-पेंच शुरू हुए। एक तरफ शबाब लिए मेहरूद्दीन की जवानी और दूसरी तरफ मंगला की बूढ़ी हो चली काया। बावजूद मंगला राय ने गाजीपुर वालों को निराश नहीं किया। अपनी माटी की लाज रख ली। यह कुश्ती टाई हो गई। हालांकि उम्र के इस पड़ाव पर यही बहुत बड़ी बात थी कि मेहरूद्दीन उन्हें शिकस्त नहीं दे सका। गांव लौटने के बाद भी वे स्थिर नहीं रहे। उन्होंने गांव के विकास के लिए कई तरह के प्रयास किए।

खुद शिक्षा से वंचित रह गए मंगला राय देश-दुनिया घूमने के बाद शिक्षा का महत्व बखूबी समझ चुके थे। तभी तो उन्होंने गांव के लोगों को एकमत करके इंटरमीडिएट स्कूल खोलवाया। आसपास के युवकों को कुश्ती की कला सिखाई। उनके कई शिष्य भी नामी पहलवान हुए। इनमें सत्यनारायण राय, रामगोविंद राय, सुखदेव यादव, भोला यादव, राजाराम यादव, दुखहरण झा, नत्था गुंगई, रामविलास राय, मथुरा राय वगैरह के नाम शामिल हैं। देश और देश की मिट्टी से बेपनाह मोहब्बत करने वाले इस पहलवान ने 26 जून 1976 को अंतिम सांस ली, हर साल मंगला राय की जयंती और पुण्य तिथि पर उनके गांव में कुश्ती सहित अन्य समारोहों का आयोजन किया जाता है।

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