इस ख़बर को शेयर करें:
बचपन की यादें – आम के बाग में कच्चे आम बीनना,टोक डंडी खेलना, फिर पानी भरे बम्बे में कूदना, जाने कहाँ गए वो दिन। जीवन में कितना कुछ मिला क्या नहीं मिला इसका हिसाब करने बैठे तो जीवन के आरंभिक वर्षों में प्रकृति के आंचल से चुने हुए सुख के ये खजाने जीवन भर के संग्रह पर भारी हैं।
चैत से लेकर आषाढ़ तक मौसम बीनने वाला होता है। इस चौमासे में प्रकृति भर भर के अपना कोष लुटाती है, इतना कि हाथ बटोरते बटोरते थक जाएं पर कोष रिक्त नही होता। शिवरात्रि आते ही बेर पकने लगते हैं, छोटी छोटी झरबेरियों से लाल पीले हरे फल गिरने लगते हैं। जिनके बचपन की जेबें झरबेरियों से भरी रहती होंगी उनसे ज्यादा धनवान उस समय कौन होगा!
फागुन में मोजराए आम बैसाख आते ही हरे हरे टिकोरे में बदल जाते हैं। या तो हवा के झकोर से या तो सुग्गे की ठोंड से पेड़ के नीचे बिछ जाते हैं। अंटी में नून और सितुही खोंसे बालक वृंद के लिए अमिया झूरना उत्सव है। जेठ महीना आते ही धूप आम से मिलकर मीठी हो जाएगी। आषाढ की बारिश गिरते ही रस भर जाएगा और आम डाली से चू पड़ेंगे। उन्हे बीनने वाले हाथ कितने सौभाग्यवान होंगे।
चैत आते ही महुए की डाल पर चांदनी फूलने लगती है। धरती पर गिरे महुए के फूल देखकर लगता है जैसे पियराए मोती रस में डूब कर स्फीत हो गए हों। जिन्होंने आधी रात में चुए महुए की टप सुनी है, जिनके हाथ महुए को बीन कर सुगंधित हुए हैं, जीवन के रस की मधुरता वही जान सकते हैं।
काले बादलों के फूल आपने देखे? यदि नही देखे तो उनका पता मैं बताता हूं, जामुन की डाल पर खिलते हैं। जरा सी पुरवाई चली बदबदा कर झरने लगते हैं। बीन लीजिए जितना मन करे। बैसाखी हवाओं के साथ शहतूत भी पकने लगते हैं, हौले से डाल को स्पर्श करिए, हथेली फलों से भर जाएगी और हां बेल को बीनना कितनी अद्भुत कला है।
गिरे हुए बेलों को फट्ट से दौड़कर ले आना मानों जग जीतने जैसा ही है। घूम घूम कर चिलबिल, गूलर, बड़हल, करौंदा ढूंढने वाले लड़के, खेतों में गेंहू के दाने बीनने से लेकर कांकर, फूट और खीरे को समेटने में दोपहर बिताने वाले लड़के शहर आ गए हैं। बाग में नून सितुही लेकर घूमने वाले उन लड़कों को शायद अब याद भी नहीं कि बीनने वाला चौमासा चल रहा है।
एक जमाना था जब ए सी , कूलर, पंखा, यहाँ तक कि गाँव में बिजली भी नहीं थी तब सब महुआ आम के पेड़ के नीचे खटिया लगाये बैठे रहते थे और तब गाँव की औरतें एक साथ मिलकर आचार, मुरब्बा, खटाई, अमावठ बनाती थीं। अब तो मोबाइल वाली औरतें दरवाजा खिड़की भी नहीं खोलतीं, और दुनिया एक कोने में सिमट सी गई है। सौभाग्य कि हमने यह सब किया है इसको जिया है।
आम के सीजन में सबसे बड़ा काम गिरे आम को बीनना होता है! पुरी बगिया में कोई न कोई आम का पेड़ ऐसा होता है कि जिसका आम पकने पर खाने योग्य नहीं होता है इसलिए वो कच्चे रहते ही अचार, खटाई, गलका बनाने में प्रयोग होता है।
लग्गी से पीटकर आम तोड़ कर उन्हे छिलकर, सुखाकर खटाई बनाते हैं। खटाई बनाने में टूटे फूटे आम का भी प्रयोग हो जाता है परंतु अचार बनाने में चोट लगे आम का उपयोग नहीं होता है इसलिए हाथ से आम तोड़कर उपयोग किया जाता है। जिस दिन आंधी तूफान आता है उस दिन गिरे हुए आम को बिनने के लिए बोरा लेकर बगिया में दौड़ जाते हैं।
सारे आम बिनने के बाद सुतुही लेकर आम की छिलाई शुरू होती है। कोई छीलता है तो कोई आम काटता है, कोई उनमें से गुठली निकालता है और फिर धूप में सुखाया जाता है। खटाई सूखने के बाद मां तेल मसाले डालकर मिट्टी के बड़े बड़े खोन्हे, गगरी में भर देती है जो सालों साल चलते हैं।
खट्टे मीठे सूखे गीले कच्चे पके प्रकृति की गोद से यह सब कुछ बीनते हुए पास बुक में शून्य बढ़ाने में लगना पड़ गया है कहाँ गुम हो गए वह नमक लिए बचपन के संगी और वह बाग बहुत ही मिस कर रहे हैं…..चिलबिल चीनी के साथ खाने का अपना ही मजा था । इन सभी चीजों को हमने भी खूब जीया है, वो भी क्या दिन थे 👌🏻❣️
महुआ बीनने के लिए सुबह साढ़े चार बजे उठकर जाते थे , और 1 से 2 kg तक लाते थे सुखाने के लिए,बहुत मजा आता था। बीनने वाले लड़कों के शहर जाते ही, इन सर्वस्व लुटाने वाले वृक्षों की संख्या भी अब नाम मात्र की ही रह गई है, इनके स्थान पर यूकलिप्टिस, पापुलर जैसे दलदली क्षेत्रों को सुखाने वाले, हर पांच छ: साल में पैसे देने वाले वृक्षों ने ले ली है, जिस कारण भूमिगत जल स्तर नीचे चला जा रहा है….।
महुआ बीनैं चलीं सखियां – सहेलियां,
मेडवा बनाये कतार हो रामा चइत महिनवा।
बागि – बगीचा गम – गम महकय,
महकत दुअरा ओसार हो रामा चइत महिनवा।
अब इतना कुछ उसी रूप में देखने को नहीं मिलता है। सुतुही नामक महुवा के टपकते ही मोती सब कुछ यदा कदा कहीं मिल जाए तो भाग्य समझिए। 20 एकड़ बाग में 75 % आम 10 % महुआ होता था जमीन भी, पर आज सब गायब, बाग सपना हो गया।
इसे वही महसूस कर सकता है जिसने इस अल्हड़ और बेलौस जीवन शैली को जिया है। मैं खुशनसीब हूं जो मेरे पुरखों के आशीर्वाद से मैंने गांव में ऐसा समृद्ध जीवन जिया है। अभी तो हम लोग आधुनिकता का चोला पहन कर अपनी संस्कृति से ही दूर हो गए हैं, जिसका परिणाम भी सर्वविदित है।