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एक ऐसे कथावाचक जिनके पास पत्नी के अस्थि विसर्जन तक के लिए पैसे नहीं थे … तब मंगलसूत्र बेचने की बात की थी। यह जानकर सुखद आश्चर्य होता है कि पूज्यनीय रामचंद्र डोंगरे जी महाराज जैसे भागवताचार्य भी हुए हैं जो कथा के लिए एक रुपया भी नहीं लेते थे मात्र तुलसी पत्र लेते थे। जहाँ भी वे भागवत कथा कहते थे, उसमें जो भी दान दक्षिणा चढ़ावा आता था, उसे उसी शहर या गाँव में गरीबों के कल्याणार्थ दान कर देते थे। कोई ट्रस्ट बनाया नहीं और किसी को शिष्य भी बनाया नहीं।
अपना भोजन स्वयं बना कर ठाकुरजी को भोग लगाकर प्रसाद ग्रहण करते थे। डोंगरे जी महाराज कलयुग के दानवीर कर्ण थे। उनके अंतिम प्रवचन में चौपाटी में एक करोड़ रुपए जमा हुए थे, जो गोरखपुर के कैंसर अस्पताल के लिए दान किए गए थे, स्वंय कुछ नहीं लिया|
डोंगरे जी महाराज की शादी हुई थी। प्रथम रात के समय उन्होंने अपनी धर्मपत्नी से कहा था, “देवी मैं चाहता हूं कि आप मेरे साथ १०८ भागवत कथा का पारायण करें, उसके बाद यदि आपकी इच्छा होगी तो हम गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करेंगे’।
इसके बाद जहाँ जहाँ डोंगरे जी महाराज भागवत कथा करने जाते, उनकी पत्नी भी साथ जाती।१०८ भागवत कथा पूर्ण होने में करीब सात वर्ष बीत गए। तब डोंगरे जी महाराज पत्नी से बोले, *अब अगर आपकी आज्ञा हो तो हम गृहस्थ आश्रम में प्रवेश कर संतान उत्पन्न करें’।
इस पर उनकी पत्नी ने कहा, ‘आपके श्रीमुख से १०८ भागवत कथा श्रवण करने के पश्चात मैंने गोपाल को ही अपना पुत्र मान लिया है, इसलिए अब हमें संतान उत्पन्न करने की कोई आवश्यकता नहीं है”। धन्य हैं ऐसे पति-पत्नी, धन्य है उनकी भक्ति और उनका कृष्ण प्रेम।
डोंगरे जी महाराज की पत्नी आबू में रहती थीं और डोंगरे जी महाराज देश दुनिया में भागवत कथा रस बरसाते थे। पत्नी की मृत्यु के पांच दिन पश्चात उन्हें इसका पता चला। वे अस्थि विसर्जन करने गए, उनके साथ मुंबई के बहुत बड़े सेठ थे “रतिभाई पटेल जी” |
उन्होंने बाद में बताया कि डोंगरे जी महाराज ने उनसे कहा था ‘कि रति भाई मेरे पास तो कुछ है नहीं और अस्थि विसर्जन में कुछ तो लगेगा। क्या करें’ ? फिर महाराज आगे बोले थे, ‘ऐसा करो, पत्नी का मंगलसूत्र और कर्णफूल पड़ा होगा उसे बेचकर जो मिलेगा उसे अस्थि विसर्जन क्रिया में लगा देते हैं’।
सेठ रतिभाई पटेल ने रोते हुए बताया था…. जिन महाराजश्री के इशारे पर लोग कुछ भी करने को तैयार रहते थे, वह महापुरुष कह रहा था कि पत्नी के अस्थि विसर्जन के लिए पैसे नहीं हैं। हम उसी समय मर क्यों न गए l फूट फूट कर रोने के अलावा मेरे मुँह से एक शब्द नहीं निकल रहा था।
सनातन धर्म ही सर्वोपरि है । ऐसे संत और महात्मा आप को केवल सनातन संस्कृति में ही मिलते है। हमारे देश में बहुत सी बातें हैं जो हम सभी तक पहुंच नहीं पायी । मैं कोशिश करता रहता हूं कि हमारे देश की संस्कृति को हम सभी जाने। ऐसे महान विरक्त महात्मा संत के चरणों में कोटी कोटी नमन भी कम है |