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भगवान जगन्नाथजी के महाप्रसाद की कथा

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एक दिन नारदमुनि कैलाश पर्वत पर शिवजी के दर्शन करने पहुँचे और उन्होंने श्रीकृष्ण एवं उद्धवजी के बीच की वार्तालाप कर वर्णन उनके समक्ष किया।

इस प्रसंग में उद्धव जी भगवान के महाप्रसाद की महिमा गान करते हुए कहते हैं–’हे भगवन! आपकी महाप्रसादी माला, सुगन्धित तेल, वस्त्रों और आभूषणों और आपके उच्छिष्ठ भोजन को स्वीकार करने से आपके भक्त आपकी मायाशक्ति पर विजय प्राप्त कर लेते हैं।’

यह सुनकर नारदमुनि कहते हैं–’हे कैलाशपति यह सुनकर मेरे ह्रदय में भगवान् विष्णु का महाप्रसाद चखने की तीव्र उत्कंठा जागृत हुई है। इस आशा से मैं वैकुण्ठ गया और पूर्ण भक्ति भाव से माता लक्ष्मी की सेवा करने लगा।

बारह वर्षों तक सेवा करने के पश्चात् एक दिन माता लक्ष्मी ने मुझसे पूछा–‘नारद! मैं तुम्हारी सेवा से अत्यंत प्रसन्न हूँ। तुम मनचाहा वर मांग लो।’ यह सुनकर नादरजी ने विनय भाव से कहा–’हे माता ! अनंतकाल से मेरे हृदय में इस बात को लेकर पीड़ा है कि मैंने आज तक कभी भगवान विष्णु के महाप्रसाद का अस्वादन नहीं किया है। कृपया मेरी यह अभिलाषा पूरी कर दीजिये।’

यह सुनकर माता लक्ष्मी देवी दुविधा में पड़ गई कहने लगी–’परन्तु नारदजी, मेरे स्वामी ने मुझे कठोर निर्देश दिए हैं कि उनका महाप्रसाद किसी को भी न दिया जाए। मैं उनकी आज्ञा का उल्लंघन कैसे कर सकती हूँ, पर तुम्हारे लिए मैं अवश्य कुछ व्यवस्था करूँगी।’

कुछ समय पश्चात् माता लक्ष्मी ने भगवान विष्णु से अपने ह्रदय की बात कही और बताया कि तरह उन्होंने भूलवश नारदमुनि को भगवान का महाप्रसाद देने का वचन दे दिया है। यह सुनकर भगवान विष्णु ने कहा–’हे प्रिये! तुमने बड़ी भारी भूल की है परन्तु अब क्या किया जा सकता है। तुम नारदमुनि को मेरी अनुपस्थिति में मेरा महाप्रसाद दे सकती हो।’

नारदमुनि ने आगे कहा–’हे महादेव, आप विश्वास नहीं करेंगे, महाप्रसाद के मात्र स्पर्श से मेरा तेज और अध्यात्मिक शक्ति सौ गुना बढ़ गई। मैं दिव्य भाव का अनुभव करने लगा और सुनाने यहाँ आया हूँ।’

यह सुनकर कैलाशपति महादेव कहते हैं–’हे नारद! निश्चित ही तुम्हारा तेज अलौकिक है परन्तु तुमने ऐसे दुर्लभ महाप्रसाद का एक कण भी मेरे लिए नहीं रखा…. ?’

यह सुनकर नारदमुनि लज्जित हो जाते हैं परन्तु तभी उन्हें स्मरण हुआ की उनके पास अभी भी थोड़ा महाप्रसाद बचा हुआ है। उन्होंने तुरन्त उसे महादेव को दिया जिसे उन्होंने अत्यन्त सम्मानपूर्वक स्वीकार कर लिया।

उसे ग्रहण करते ही श्रीकृष्ण प्रेम में मस्त होकर भगवान शिव नृत्य करने लगे। उनके नृत्य की थिरकन धरा से हिलने लगी और भूकम्प सा महसूस होने लगा तब भयभीत होकर माता पृथ्वी ने माता पार्वती से महादेव को शांत करने का निवेदन किया।

बहुत मुश्किल से माता पार्वती ने शिवजी को शांत किया और फिर उनसे इस उन्मत नृत्य करने का कारण पूछा तो शिवजी ने इसका कारण बताया। यह सुनकर माता पर्वती रुष्ठ होकर बोलीं–’स्वामी! आपको महाप्रसाद मुझे भी देना चाहिए।

था क्या आप नहीं जानते मेरा नाम वैष्णवी है आज मैं प्रतिज्ञा लेती हूँ कि यदि भगवान श्रीहरि मुझ पर अपनी करुणा दिखाएंगे तो मैं प्रयास करुँगी की उनका महाप्रसाद ब्रह्मांड के प्रत्येक व्यक्ति, देवता और यहाँ तक की सभी प्राणियों को भी प्राप्त होगा।

तभी आश्चर्य जनक रूप से उसी क्षण भगवान विष्णु माता पर्वती के वचन की रक्षा हेतु वहाँ प्रकट हुए और बोले–’हे देवी पर्वती! मैं आपको वचन देता हूँ कि मैं स्वयं तुम्हारी प्रतिज्ञा को पूर्ण करूँगा, और पुरुषोत्तम क्षेत्र जगन्नाथ पुरी में प्रकट होऊँगा और ब्रह्माण्ड में प्रत्येक जीव को अपना महाप्रसाद प्रदान करूँगा।

इसीलिए आज भी जगन्नाथ मन्दिर में भगवान जगन्नाथ को भोग लगाने के पश्चात सर्वप्रथम प्रसाद विमलादेवी (माता पार्वती) के मन्दिर में अर्पित किया जाता है और यही कारण है कि कोई भी भक्त प्रसाद कभी भी अर्चा विग्रह के सामने बैठकर ग्रहण नहीं करता है।

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