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एक महात्मा ने एक साहूकार को एक ऐसी पारसमणि की बटिया दी कि जिसको लोहे में छुआते ही लोहा सोना बन जाता था, परन्तु महात्मा ने उससे यह कहा था कि बटिया मैं तुम्हें सात दिन के लिये देता हूँ । सात दिन पूरे होने पर मैं तुझसे ये बटिया वापस ले लूँगा । साहूकार ने बटिया पाते ही सोंचा कि मेरे घर में तो लोहे के रूप में, हँसिया, खुरपी, फावड़ा व कुदाल ही है, इसके अलावा और कुछ भी नहींहै और बटिया केवल सात दिन को ही मिली है । अभी तो सात दिन पड़े हैं इतने में लोहा खरीदा जा सकता है । ऐसा सोंच कर उसने एक आदमी कलकत्ता और दूसरा बम्बई भेजा और लोहा खरीद कर लाने को कहा ।
दो दिन बाद गाड़ी कलकत्ता पहुँची फिर आई , दो या ढाई दिन में बम्बई पहुँची फिर आई लोहा खरीदते और गाड़ियों में लादते दोदिन बीत गये । फिर दो दिन में रेलगाड़ियाँ आँई । इस तरह से छह दिन बीत गये । सातवें दिन साहूकार ने मालगाड़ियों से माल उतरवा कर सोंचा अगर यहीं पारस पथरी छुआते हैं तो लुटेरे डाकू सब लूट ले जायें गे अतः लोहे को घर में भर कर तब पारस छुआयें ऐसा सोंच कर लोहा बैलगाड़ियों में भरकर घर लाये ।
दरवाजे से लोहा उतरवा कर घर में भर रहे थे ( यह समय सातवें दिन बारह बजे रात का था ) तब तक महात्मा जी बटिया लेने को आ गये । साहूकार ने महात्मा जी का बहुत आदर-सत्कार किया ।
महात्मा जी ने कहा – “यह बटिया लाइये ” ।
साहूकार ने कहा – ” महाराज अबतक तो हम लोहा खरीदते रहे, कृपया हमें थोड़ा सा समय और दीजिये ।”
महात्मा जी ने कहा -“मैं एक मिनट भी नहीं दे सकता ; बटिया लाइये” ।
साहूकार ने कहा -” महाराज ! हम जाकर लोहे से छुवाये लेते हैं ।”
महात्मा जी ने कहा -” बस आपकी अवधि पूरी हो गई ।” और उसके हाँथ से बटिया छीन ली ।
इस दृष्टान्त का भाव यह है कि जीवात्मा रूपी साहूकार को परमात्मारूपी महात्मा ने शरीर रूपी पारसमणि पथरी सात दिन के लिये ( सात दिन का तात्पर्य ये कि दिन सात ही होते हैं ) ही दी थी कि इस पारसमणि पथरी से माया-जंजाल विषयों से अलग होकर भक्ति रूपी असली सोना बना लेंना, पर ये यह जीवात्मा रूपी साहूकार सातों दिन लोहा खरीदता रहा, यानि सदैव यह अपने शरीर व शरीर की इन्दियों के बिषयों में फंसा रहा ।
जिस हरिभजन के लिये ये देह मिली है उसके लिये आगे की प्रतीक्षा न करके अभी करें । अतः इस पारसमणि पथरी को यों ही व्यर्थ न गँवायें यह मनुष्य शरीर बार-बार नहीं मिलता।
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