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रामचरित मानस में तुलसीदास की मणिदीप व्याख्या

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रामनाम मनि दीप धरु जीह देहरीं द्वार। तुलसी भीतर बाहेरहुं जौं चाहसि उंजियार।।

सरलार्थ – श्री तुलसीदास जी कहते हैं कि (मुखरूपी दरवाज़े की) जीभरूपी देहली पर श्री रामनामरूपी मणि दीपक रख , जो तू भीतर और बाहर भी उजाला चाहता है।
निहितार्थ – ” श्री राम नाम प्रकरण ” के अंतर्गत श्रीरामभक्त तुलसीदास जी राम नाम के प्रभाव को दर्शाते हुए उपर्युक्त दोहा लिखते हैं। हम सभी जानते हैं कि जो लोग केवल इस लोक का विचार कर कार्य करते हैं , उन्हें भौतिक सुख तो प्राप्त होता है , लेकिन वे आध्यात्मिक सुख से वंचित रह जाते हैं। जो लोग केवल आध्यात्मिकता का विचार करते हैं , वे भौतिक सुख से वंचित रह जाते हैं।

तुलसीदास जी मनुष्य का इकतरफा सुख नहीं चाहते हैं। वे चाहते हैं कि मनुष्य का सांसारिक जीवन तथा आध्यात्मिक जीवन – दोनों जीवन आनंदमय हो। अधिकांश लोग ऐसा ही चाहते हैं, पर यह कैसे उपलब्ध होगा ? यह नहीं जानते हैं। इसके लिए तुलसीदास जी श्री रामचरितमानस में बड़ा ही सरल एवं सुगम उपाय उपर्युक्त दोहा के माध्यम से बतलाते हैं। अलंकार की दृष्टि से यहां रूपक अलंकार का प्रयोग श्री तुलसीदास जी ने किया है।

 

जब हम रात्रि में किसी घर के दरवाजे के चौखट पर जलता हुआ दीपक रखते हैं , तो उसका प्रकाश घर के भीतर भी आता है और घर के बाहर भी जाता है। एक ही प्रज्वलित दीपक से घर का भीतरी भाग और बाहरी भाग दोनों प्रकाशित हो जाता है।

यहां यह विचारणीय है कि साधारण दीपक तभी तक जलता है, जब तक उसमें तेल रहता है और बाती रहती है। तेल और बाती के न रहने पर दीपक बुझ जाता है। तेल और बाती के रहते हुए भी प्रबल वायु के झोंके से दीपक बुझ जाता है। इस कारण पुनः अंधकार का साम्राज्य स्थापित हो जाता है।

तुलसीदास जी ज्ञानी भक्त थे। उन्होंने साधारण दीपक का दृष्टांत न देकर मणि-दीप का दृष्टांत दिया है। सामान्य दीपक की भांति मणि-दीप में जहां एक ओर तेल – बाती की आवश्यकता नहीं पड़ती , वहीं दूसरी ओर वायु के प्रबल झोंके का भी भय नहीं रहता। अतः इसके बुझने का सवाल ही नहीं उठता।

तुलसीदास जी किस मणिदीप का उल्लेख कर रहे हैं?

यहां पर तुलसीदास जी ” रामनामरूपी ” मणिदीप का उल्लेख कर रहे हैं। इसकी दीपशिखा प्रचंड विघ्नरूप प्रखर वायु से भी नहीं बुझ सकती। यह देह मंदिर के समान है, उसका द्वार मुख है तथा जिह्वा (जीभ) देहली है। जिह्वा पर रत्नरूपी राम नाम रहता है। नाम के जप से भीतर प्रकाश होता है, तब निर्गुण ब्रह्म का अनुभव होता है और जब बाहर प्रकाश होता है, तब सगुण ब्रह्म दृश्यमान होता है। भक्त तुलसीदास जी के कहने का आशय यह है कि बिना राम नाम के जपे हृदय में प्रकाश नहीं हो सकता और हमें निर्गुण – सगुण ब्रह्म का साक्षात्कार नहीं हो पाता है।

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