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एक सन्यासी घूमते-फिरते एक दुकान आये। दुकान में अनेक छोटे-बड़े डिब्बे थे।
सन्यासी ने एक डिब्बे की ओर इशारा करते हुए दुकानदार” से पूछा , “इसमें क्या है?”
दुकानदार ने कहा, “इसमें नमक है।”
सन्यासी ने फिर पूछा इसके पास वाले में क्या है ?”
दुकानदार ने कहा, “इसमें हल्दी है।”
इसी प्रकार सन्यासी पूछ्ते गए और दुकानदार बतलाता रहा।
अंत मे पीछे रखे डिब्बे का नंबर आया, सन्यासी ने पूछा, “उस अंतिम डिब्बे में क्या है?”
दुकानदार बोला, “उसमें श्रीकृष्ण हैं।”
सन्यासी ने हैरान होते हुये पूछा,
श्रीकृष्ण !! भला यह “श्रीकृष्ण” किस वस्तु का नाम है भाई?
मैंने तो इस नाम के किसी सामान के बारे में कभी नहीं सुना !”
दुकानदार सन्यासी के भोलेपन पर हंस कर बोला, “महात्मन ! और डिब्बों मे तो भिन्न-भिन्न वस्तुएं हैं,पर यह डिब्बा खाली है। हम खाली को खाली नहीं कहकर श्रीकृष्ण कहते हैं !”
संन्यासी की आंखें खुली की खुली रह गई ! जिस बात के लिये मैं दर-दर भटक रहा था, वो बात मुझे आज एक व्यापारी से समझ आ रही है।
वो सन्यासी उस छोटे से किराने के दुकानदार के चरणों में गिर पड़ा, ओह, तो खाली में श्रीकृष्ण रहता है !
सत्य है ! भरे हुए मैं (अहम) मे श्रीकृष्ण को स्थान कहाँ ? काम, क्रोध, लोभ, मोह, लालच, अभिमान, ईर्ष्या, द्वेष और भली-बुरी, सुख-दुख की बातों से जब दिल-दिमाग भरा रहेगा तो उसमें ईश्वर का वास कैसे होगा ?