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मशहूर गीतकार ‘आनंद बक्षी’ का फिल्मी संघर्ष

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समीर जब पहली दफा अपने पिता अंजान जी के पास मुंबई गए तो पहले ही दिन उनकी मुलाकात आनंद बक्षी से हुई। आनंद बक्षी को जब पता चला कि ये अंजान का बेटा है तो उन्होंने अंजान जी से पूछा,”ये तुम्हारा लड़का किसका फैन है?” अंजान जी ने जवाब दिया,”बेटा मेरा है। लेकिन फैन ये तुम्हारा है।” ये सुनकर आनंद बक्षी ठहाका मारकर हंसे। फिर उसी समय अंजान जी ने अपने बेटे समीर से कहा कि मैं जो कविताएं लिखता हूं यो यहां कुछ खास नहीं चल रही हैं। तुम एक काम करो। इनके(आनंद बक्षी) स्टाइल के गीत लिखने का अभ्यास करो। शायद तुम्हें सफलता मिल जाए। समीर जी के साथ हुआ भी कुछ ऐसा ही था। वो भी आगे चलकर फिल्म इंडस्ट्री के नामी गीतकार बने।

आज आनंद बक्षी जी की पुण्यतिथि है। 30 मार्च 2002 को आनंद बक्षी जी ये दुनिया छोड़ गए थे। आनंद बक्षी फौजी थे। चौदह साल की उम्र में इनकी नौकरी रॉयल नेवी में लग गई थी। नौकरी मामूली थी। लेकिन चूंकि घर पर पैसों की ज़रूरत थी तो इनके लिए वो नौकरी बड़ी अहम भी थी। मगर जब रॉयल नेवी में भारतीय सिपाहियों ने अंग्रेजी हुक्मरानों के खिलाफ बगावत की तो उस बगावत में ये भी शामिल हो गए। उस समय तक रॉयल नेवी में नौकरी करते हुए इन्हें दो बरस हो चुके थे। यानि उस बगावत के वक्त इनकी उम्र सोलह साल थी।

तमाम दूसरे भारतीय सिपाहियों के साथ अंग्रेजों ने आनंद बक्षी को भी गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया। पर चूंकि तब तक ये नाबालिग ही थे तो अंग्रेजों ने इन्हें छोड़ दिया। फिर कुछ महीनों बाद ही देश का विभाजन हो गया। आनंद बक्षी जो उस वक्त रावलपिंडी में रहा करते थे, वो सपरिवार भारत आ गए।

भारत आकर इन्होंने इंडियन आर्मी में मैकेनिक की हैसियत से नौकरी शुरू कर दी। लेकिन इन्हें तो बचपन से ही क्रिएटिव फील्ड में अपनी पहचान बनानी थी। सो एक दिन नौकरी छोड़कर ये पहुंच गए बॉम्बे(मुंबई)। साल था 1951. अगले तीन सालों तक इन्होंने बॉम्बे में खूब धक्के खाए। लेकिन इन्हें कोई काम नहीं मिला। हारकर 1954 में ये वापस अपने घर लौट गए।

1956 में एक दफा फिर से आनंद बक्षी ने बॉम्बे का रुख किया। इस दफा भी हालात पहले वाले ही थे। लेकिन इस दफा एक ज़रा सा फर्क था। या ज़रा सा ना कहकर कहना चाहिए कि एक अहम फर्क था। इस दफा इनकी दोस्ती चित्रमल नामक रेलवे के एक टिकट चैकर से हो गई थी।

चित्रमल ने इन्हें अपने रेलवे क्वार्टर में ठहरने की जगह दी थी। और जब ये काम ना मिलने की वजह से बहुत हताश हो जाते थे तो चित्रमल ही इनका हौंसला भी बढ़ाते थे। चित्रमल जी का इन पर जो भरोसा था वो बेकार नहीं गया। साल 1958 में आनंद बक्षी की मेहनत आखिरकार रंग लाई। वो तो वापस लौटने का फैसला कर चुके थे। लेकिन अब उनकी किस्मत का ताला खुल चुका था।

आनंद बक्षी को भला आदमी नाम की एक फिल्म में गीत लिखने का मौका दिया गया। उस फिल्म के हीरो थे भगवान दादा। और 9 नवंबर 1958 को आनंद बक्षी जी का लिखा पहला गीत रिकॉर्ड किया गया था। गीत के बोल थे,”सैंया छोड़ो जी कलाई अब हाथ से। मोरा जिया घबराए ऐसी बात से।” ये गीत सुधा मल्होत्रा जी ने गाया था। और संगीत दिया था निसार बज़्मी ने। और आखिरकार आगाज़ हो गया एक दौर का जो अगले कई सालों तक चलता रहा। एकछत्र राज करता रहा। 

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