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मडुआ, रागी
किसी समय में ये हर कोई खाता था। अब अन्य प्रदेशों में लुप्तप्राय हो गया है। हिमाचल प्रदेश में अब भी इसकी खेती होती है और वहां को लोग दैनिक भोजन में शामिल करते हैं। केवल मडूआ की रोटी बनाना थोड़ा मुश्किल होता है इसलिए गेंहू के आटे में मिक्स करके बनाई जाती है और उसे राली रोटी कहते हैं।
मैने मड़ुआ की खेती नही देखी है जब मैं समझदार हुआ तब तक मडुआ , सांवा इत्यादि की खेती बंद हो गई थी। आजी बताया करती थी कि पहले लोग सांवा, कोदो, मकुनी, जोनहरी, धनकोदवा जैसे मोटे अनाज खाते थे।
धान,गेंहू की उपज कम होती थी ये अतिथियों के आने पर बनता था। मेरी नानी के घर बारिश में पशुओं को खिलाने के लिए सांवा बोया जाता था। बारिश में खेतो में और कोई फसल न होने के नाते सांवे की बालियों पर तोते लटके रहते थे। न जाने कितने पक्षियो का भोजन हो जाता था।
जो इन पक्षियों से बचता था नानी जी अगले वर्ष के लिए बीज के लिए रखती थी और कुछ का चावल बनाती थी जिसकी खीर बहुत स्वादिष्ट होती थी। मडुआ की रोटी तो नही खाई है परंतु इसकी लपसी एक बार आजी ने बना कर खिलाया था जो जमकर हलवे जैसी हो गई थी बेहद स्वादिष्ट थी। यदि मैं गलत नही हु तो शायद कोदो और मडुआ एक ही को कहते हैं।
मां बताती हैं कि कोदो में एक मतवाना कोदो भी होता था जिसको खाने से नशा हो जाता था। जो अनाज हमने खाना छोड़ दिया था आज फिर से सुपर फूड, मिलेट नाम से अलग अलग रूप से उपयोग करने लगे हैं क्योंकि अब पता चला कि इन्हे छोड़कर हमने कितना गलत किया था। स्वस्थ रहना है, बीमारियों से बचना है तो इन्हे पुनः अपनाना होगा।