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हाथ से घुमाकर चलाई जाने वाली चक्‍की के प्रमाण

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चित्र देखते ही घट्टी (जांत) से जुड़ी यादे ताजा हो जाती है…. आज घट्टी उपयोगी नही रही हो…पर आज भी शुभ कार्यो में घट्टी को पूजा जाता है,शादी ब्याह में हल्दी पीसकर शुभ मुहर्त किया जाता है …गाँवो में आज भी दाल बनाने के लिए घटूलिया(छोटी घट्टी) का उपयोग लिया जाता है..।

घट्टी (जांत) को ओर अधिक समझने के लिये यह लेख पढ़े..
चक्‍की – तक्‍खिला या तक्षशिला से?
अक्‍सर यह गलती हो जाती है- ‘आटा पिसवाने जा रहा हूं।’ कहना चाहिए था- ‘गेहूं पिसवाने जा रहा हूं।’ बात की चक्‍की की है। उसमें भी हाथ चक्‍की की जिस पर अनाज पीसना बड़ा कठिन था मगर जब चक्‍की नहीं थी तब? तब अनाज को कूटा जाता, भिगाेया जाता और गूंथकर देर तक रख दिया जाता। चक्‍की ने राह आसान की, मगर चक्‍की आई कब ?

जरूर यह कबीर से पुरानी है जो अपने घर में इसे चलती देखकर कह उठे-

चलती चाकी देखकर दिया कबीरा रोय।
दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय।।

या फिर –
पाहन पूजत हरि मिलै, तो मैं पूजूं पहार।
ताते ये चाकी भली, पीस खाये संसार ।।

यह शायद पहले यंत्र समझा गया। जन्‍त इसी का नाम है। इस पर बैठकर गाये जाने वाले लोकगीतों को जंतसार के गीत कहा गया है। हमारे यहां इसको घट्टी कहा जाता है, यह नाम इसकी ‘गर्ड-गर्ड’ जैसी आवाज की बदौलत हुआ होगा। इसके भी कई रूप है दाल दलने वाली रामुड़ी और अनाज पीसने वाली श्‍यामुड़ी।

यह चक्‍की इतनी लोकप्रिय रही कि इसके निर्माण की विधि लिखने की जरूरत ही न पड़ी क्‍योंकि कहावत रही’ ‘घर घट्टी घर ओंखली, परघर पीसण जाए।’ इसको हमारे घर तक पहुंचाने का श्रेय उन यायावरों को है जिनको कारवेलिया के नाम से जाना गया और जिनका संबंध पश्चिमी भारत से अधिक रहा है। वे ही इसको बनाने, टांकने-टांचने, सुधारने का भी काम करते रहे थे। मुगलकाल में गांवों में बड़ी बड़ी चक्कियां गाड़ी में लेकर लोग अनाज पीसने का कार्य करते थे, ऐसा साक्ष्‍य मिलता है।

विश्‍वास किया जाता है कि यह करीब 2000 साल पुरानी है। भारत में हाथ से घुमाकर चलाई जाने वाली चक्‍की के प्रमाण पहली सदी के आसपास के ‘तक्षशिला’ या ‘तक्खिला’ से मिले हैं। यह मत सबसे पहले जाॅन मार्शल ने तक्षशिला पर अपनी किताब में दिया। यही नहीं, वहां से पत्‍थर का चूर्ण करने वाली चक्‍की के प्रमाण भी मिले हैं। तो, क्‍या यह मान लिया जाए कि चक्‍की तक्षशिला से चली, मगर उसमें तक्षशिला जैसा है क्‍या ?

इसमें हत्‍था सबसे रोचक चीज है जिसके साथ पूरा घूर्णन नियम जुड़ा है। रचनात्‍मक रूप में यह थाला अथवा आलवाल पर ‘नार पाट’ लिए होती है जिसकी नाभि के आरपार ‘खीला’ या कील होती है। नार पाट पर रखा जाने वाला ‘नर पाट’ होता। उसके बीचो बीच तीन या चार अंगुल का आरपार छेद जिसे ‘गला’ कहा जाता है, इसमें डाले गए अनाज के दाने गाला कहलाते हैं। इस गले के बीच में लगती है चाखड़ी।

इसके अधोभाग में एकांगुल के बराबर छेद होता। इसी में खीले का मुंड भाग आ जाता। यह ऊपरी पाट को संतुलित करता। पूरे वजन को नार पाट पर रखना है या कुछ ऊपर। महीन या मोटा आटा इसी विधि से पीसा जाता। इसको ऊपर-नीचे के करने के लिए थाले के नीचे ‘तक्‍ख’ या तोका होता। यह एक पटरी होती जो एक छोर से दूसरे छोर तक मोटी होती जाती। आगे सिरकाने पर खीला ऊपर उठता तो पाट को ऊंचा कर देता…।

संतुलन और हत्‍थे के साथ गति का यही सिद्धांत इस चक्‍की यंत्र के निर्माण की प्रेरणा रहा है। मगर ये क्‍या कम अचरज है कि इसमें तक्‍ख और खीला खास अंग है और दोनों को मिलाकर ही चक्‍की पूरी होती है और दोनों शब्‍दों को मिलाएं तो ‘तक्‍खीला’ और संस्‍कृत में ‘तक्षशिला’ हो जाता है। ताज्‍जुब हुआ न। मगर हां, आप यह जरूर बताएं कि आपके पास इस यंत्र की क्‍या विशेष जानकारी है, यदि आप भी मेरी तरह चक्‍की चलाती मां की गोद में सोये होंगे तो जरूर याद आएगा यह यंत्र… ।

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