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क्रॉमवेल स्ट्रीट, इंडिया हाउस, साल 1909

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अक्टूबर की सर्द शाम, फर्स्ट फ्लोर के किचन में नाटा सा एक चितपावनी, फ्राइंग पैन में “प्रॉन्स” यानी झींगे तल रहा था।
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यहां अफ्रीका से एक गुजराती वैश्य आया था। ये अधेड़ गुजराती, ऐसे तो असफल वकील था, पर अब दक्षिण अफ्रीका में बसे भारतीयों का नेता बन चुका था।

वहां ब्रिटिश के खिलाफ लड़ रहा था। फिलहाल लन्दन में था।
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इंडिया हाउस, एक ब्रिटीश भारतीय का बंगला था। जो इंडियन स्टूडेंट्स के होस्टल की तरह उपयोग होता। पर यहां लाला हरदयाल, मैडम कामा, मदनलाल ढींगरा जैसे लोगों से संपर्क किया जा सकता था। जो स्टूडेंट, अपने लिए शाम का नाश्ता तैयार कर रहा था, उसका नाम था – विनायक दामोदर सावरकर..
वो इंडिया हाउस गए थे, जो इंडियन नेशनलिष्ट का दूतावास टाइप ठिकाना था। सावरकर भी वहीं रहते थे। ये कहना गलत होगा कि वे सावरकर से मिलने स्पेशियली गए थे।
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बात दक्षिण अफ्रीका, भारत मे जनचेतना, ब्रिटीश साम्राज्यवादी नीतियों पर चल रही थी। तैयार प्रॉन्स को सावरकर ने गांधी की ओर बढ़ाया।

मुस्कुराते हुए गांधी ने मना कर दिया – मैं वेजिटेरियन हूँ।

सावरकर हंसे- मिस्टर गांधी..?

बगैर एनिमल प्रोटीन के आप ब्रिटीश सत्ता का मुकाबला कैसे करेंगे??”
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गांधी ने तले प्रॉन्स फिर भी नही खाये।

24 अक्टूबर 1909 को गांधी और सावरकर ने दशहरे के उपलक्ष्य में आयोजित कार्यक्रम में एक मंच से भाषण दिए। सावरकर ने बुराई को खत्म करने वाली दुर्गा की बात की..

तो गांधी ने मर्यादा पुरुषोत्तम राम की..
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39 साल बाद, सावरकर कटघरे में बैठे थे।गांधी कुछ दिन पूर्व आखरी बार “हे राम” कह चुके थे।

हत्या का मुकदमा सुना जा रहा था। सावरकर कहीं पीछे, छुपे जा रहे थे। नाथूराम और गोपाल गोडसे, नारायण आप्टे , चौड़े होकर आगे बैठे थे।

सभी हिन्दू महासभा के सदस्य थे। वही महासभा,जिसके सावरकर अध्यक्ष रहे, और मेंटर थे।
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हत्या की 6 कोशिशों में गांधी 5 बार बच निकले थे।

1934 पूना नगरपालिका ने गांधी का सार्वजनिक सम्मान समारोह रखा था। गांधी की आगे वाली कार पर बम फटा। दो पुलिसवाले सहित सात लोग घायल हुए।

जुलाई 1944 में आगा खान पैलेस में नजरबन्द गांधी छूटे, तो पंचगनी रुके। वहां कुछ शोहदों ने दिन भर गांधी विरोधी नारे लगाए। शाम की प्रार्थना सभा मे, एक लड़का छुरा लेकर गांधी की ओर दौड़ा, पकड़ा गया।

उसे पुलिस के हवाले किया गया, पर बापू ने उसे छोड़ देने की अपील की। उसका नाम नाथूराम गोडसे था, गांधी के कहने पर पुलिस ने छोड़ दिया।
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सितम्बर 1944 में बापू सेवाग्राम से बम्बई को चले, जिन्ना से मिलने। गोडसे एन्ड कम्पनी ने फिर रास्ता घेरा। पुलिस ने गिरफ्तार किया। छुरा और तलवारें बरामद हुई।

जून 1946 में पूना की ओर बढ़ती गांधी की ट्रेन की पटरियां उखाड़ दी गयी। ट्रेन पलटी, गांधी बच गए।
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ये सारी घटनाएं पुणे के आसपास थी। ये इलाका हिन्दू महासभा का गढ़ था।

20 जनवरी 1947 को गांधी की प्रार्थना सभा मे बम फेंका गया।पाहवा, आप्टे, गोडसे, करकरे, बड़गे और शंकर किश्तिया ने कारनामा किया था। प्लान फेल हुआ। पाहवा पकड़ा गया, बाकी भाग गए।

छठवें प्रयास में बापू नही बचे। 30 जनवरी 1948, गोडसे ने पैर छूकर सर उठाया।

और गोली मार दी।
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तो सावरकर अब कटघरे में थे। पुलिस के मुताबिक गोडसे – सावरकर पुराने सहयोगी थे। गांधी हत्या की योजना के दौर में वह लगातार सावरकर से मिलता रहा।

आप्टे- गोडसे की पत्रिका “अग्रणी” ( वही पत्रिका जिसके एक कार्टून में रावण बने गांधी, नेहरू, सुभाष, को श्यामाप्रसाद मुख़र्जी व सावरकर सन्धान करते दिखाए गए थे) के पब्लिशिंग बिजनेस में सावरकर के 15000 रु का इन्वेस्टमेंट प्रमाणित किया गया।

हत्या से कुछ पहले, बिरला से मिलने वाले, हजार रुपए के चेक को उन्होंने गोडसे को डिलीवर करने के निर्देश दिए थे।

गवाहों के मुताबिक गोडसे हत्या के ठीक पूर्व सावरकर से मिला था। और सावरकर ने उसे यशस्वी होने का आशीर्वाद दिया था।

हालांकि ये सब सीधा सबूत न था। सावरकर बरी कर दिए गये।
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मगर वह कटघरा ताजिंदगी उनके साथ बना रहा। हिन्दू महासभा छिन्न भिन्न हो गयी।सावरकर आमजन की अथाह नफरत, और अपयश के बीच, सुलगते हुए 18 बरस औऱ जिये।

उनके चेलों ने एक नई पार्टी बनाई, पर सावरकर को जीतेजी कोई पद या जगह न दी। 1966 मे अपनी मौत के काफी पहले सावरकर भुलाए जा चुके थे।
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क्या विडम्बना है जिस मोहनदास की पहली मुलाकात में उन्होंने हंसी उड़ाई थी, उसी जिंदा या मुर्दा महात्मा से जूझते उनका पूरा जीवन गुजरा।

अंधेरे में उनकी पूजा करने वाले, दिन की रौशनी में गांधी के ही पैरो मे लोटते हैं।सावरकर की तस्वीर, पुरानी संसद के सेंट्रल हाल में गांधी के ठीक अपोजिट लगी है।

एक को देखने के लिए आपको दूसरे की तरफ पीठ करनी पड़ेगी। अगर देख सकें, तो दोनो तस्वीरों के बीच .. कुछ एनिमल प्रोटीन मिलेगा। तीन गोलियां, खून के कुछ छीटें भी।
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