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विष्णु तीर्थ कहा जाने वाला “चेन्नाकेशव मंदिर”

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दक्षिण भारत का एक ऐतिहासिक मंदिर और धरोहर ‘चेन्नाकेशव’ जिसे उत्तर भारत के अधिकांश लोग नहीं जानते हैं। कन्नड़ भाषा में चेन्नाकेशव का अर्थ है सुन्दर विष्णु। भगवान विष्णु के इस अनोखे मंदिर का निर्माण बारहवीं शताब्दी (1117ई0) में बेलूर की ‘होयसला’ रियासत के राजा विष्णुवर्धन ने यगाची नदी के किनारे करवाया था।

यह बेंगलुरु से 200 किलोमीटर और हासन जिला मुख्यालय से 35 किलोमीटर दूर अवस्थित है। बार-बार किये गये ध्वंस की मरम्मत, पुनर्निर्माण और विस्तार अगले 103 वर्षों तक उनकी तीन पीढ़ियाँ करती रही थीं। इस क्रम में इसका फैलाव लगभग चार एकड़ में हो गया।

178 फुट लम्बा और 156 फुट चौड़ा बेलूर का चेन्नाकेशव मंदिर स्थापत्य और मूर्तिकला का बेहतरीन नमूना है। इस मंदिर की मूर्तियाँ परिधान रहित हैं। इसकी नक़्क़ाशी और बनावट गुरुत्वाकर्षण रेखा की चौंका देने वाली रचना में है। अद्भुत एवं अकल्पनीय।

 

सिंगल चट्टान काट कर एकड़ों के हिसाब से अद्भुत मन्दिर बना देने वाले पूर्वजों पर गर्व करें, सोशल मीडिया नहीं आता तो आधा भारत तो तेजोमहालय को ही सर्वश्रेष्ठ कृति मानता रह जाता जबकि असल में आज रैंकिंग की जाए तो तेजोमहालय भारत के टॉप 50 में भी नहीं आएगा।

मन्दिर के भीतर की शीर्षाधार मूर्तियों में देवी सरस्वती का उत्कृष्ट मूर्तिचित्र देखते ही बनता है। देवी नृत्यमुद्रा में हैं जो विद्या की अधिष्ठात्री के लिए सर्वथा नई बात है। इस मूर्ति की विशिष्ट कला इसकी गुरुत्वाकर्षण रेखा की अनोखी रचना में है।

 

यदि मूर्ति के सिर पर पानी डाला जाए तो वह नासिका से नीचे होकर वाम पार्श्व से होता हुआ खुली वाम हथेली में आकर गिरता है और वहाँ से दाहिने पाँव में नृत्य मुद्रा में स्थित तलवे (जो गुरुत्वाकर्षण रेखा का आधार है) में होता हुआ बाएँ पाँव पर गिर जाता है।

वास्तव में होयसल वास्तु विशारदों ने इन कलाकृतियों के निर्माण में मूर्तिकारी की कला को चरमावस्था पर पहुँचा कर उन्हें संसार की सर्वश्रेष्ठ शिल्पकृतियों में उच्च स्थान का अधिकारी बना दिया है

1433 ई. में ईरान के यात्री अब्दुल रज़ाक ने इस मन्दिर के बारे में लिखा था कि वह इसके शिल्प के वर्णन करते हुए डरता था कि कहीं उसके प्रशंसात्मक कथन को लोग अतिशयोक्ति न मान लें।

इस मंदिर का इतिहास ध्वंस और निर्माण के संगम का एक अनूठा अध्याय है। आक्रांताओं की विनाश लीला से हतोत्साहित हुए बिना राजा की तीन पीढ़ियाँ लगातार निर्माण में सन्नद्ध रहीं। अंतिम निर्णायक चोट दिल्ली सल्तनत के आततायी बादशाह अलाउद्दीन खिलजी के सेनापति मलिक काफूर ने चौदहवीं शताब्दी में की थी, जिसने होयसला के आखिरी राजा वीर बल्लाल तृतीय की हत्या कर दी थी। तबसे उसी ध्वंशावशेष के साथ बेलूर नगर के मध्य में खड़ा यह मंदिर श्रद्धालुओं की आँखें भिंगो रहा है। देश के कोने-कोने से आने वाले श्रद्धालु और पर्यटक भव्यता में ध्वंस को समाहित देखकर उन मुस्लिम आक्रांताओं को हजारों लानतें भेजते हैं। इस धरोहर के बारे में पढ़ते हुए मुझे अपने बिहार के नालन्दा और विक्रमशिला की याद आने लगी। आखिर इन मंदिरों, मठों और महाविहारों ने किसी का क्या बिगाड़ा था!

यह मंदिर स्थापत्य कला और पत्थरों पर नक्काशी के मामले में अद्वितीय और अद्भुत है। सम्पूर्ण परिसर के ध्वंसावशेषों में रामायण, महाभारत और पुराणों में वर्णित मिथकीय कथाओं को प्रस्तर कलाओं के माध्यम से अभिव्यक्त किया गया है। छतों, स्तंभों, दीवारों, विग्रहों और मूर्तियों पर की गयी महीन कारीगरी देखकर विश्वास करना मुश्किल है कि यह काम बिना मशीनों के, केवल छेनी-हथौड़ी के सहारे किया गया कारनामा है!

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