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ग़ज़ल सैकड़ों वर्षों से किताबों में महफूज़ थी और जो अपने आप में संपूर्ण थी। अगर आज भी गुज़रे दौर की उर्दू ग़ज़लें उपलब्ध हैं तो इन्हीं किताबों की वजह से ही। परंतु अधिकतर किताबें अदब के शौकीनों तक ही सीमित रहती हैं, इस कारण ग़ज़ल आम आदमी से दूर रहीं।
पदम विभूषण बेगम अख़्तर साहिबा ने इन ग़ज़लों को गाकर इन्हें एक आम श्रोता से जोड़ने का बहुत बड़ा काम किया है। जिसे उनके बाद की पीढ़ी के गायकों ने आगे बढ़ाया। बेगम साहिबा ने ग़ज़लों को जो वक़ार दिया उसका अपना इतिहास है। शास्त्रीय संगीत के विभिन्न अंगों में बेगम साहिबा की महारत ने ग़ज़ल गायिकी में इंद्रधनुषी रंग भरे। और ऊपर से उनकी शायरी की समझ, तलफ़्फ़ुज़, जीवन के दर्द और कुछ कर गुजरने को ठसक ने ग़ज़ल को जो रूह बख़्शी उसका कोई सानी नहीं। तभी आज भी उनकी ग़ज़लों का तिलिस्म ज्यों का त्यों बरकरार है, इसीलिए मैं बेगम साहिबा को ग़ज़ल प्रस्तुति का महाविद्यालय कहती हूं, जिससे आप भी सहमत होंगे।
मेरे बाबा भारतरत्न बिस्मिल्लाह ख़ान साहब कहते थे कि अगर कोई आवाज़ ने उनके दिल को जीता तो वो अख़्तरी बाई फैज़ाबादी यानी बेगम अख़्तर थी। वे उनको सुनते नही थकते थे, दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे उनकी पसंदीदा ग़ज़ल थी। मुझे ग़ज़ल गाना जाति-तौर पर बहुत अज़ीज़ है, मैंने अपनी गजलों को कंपोज करते हुए बेगम साहिबा के दिखाए रास्ते को हमेशा ध्यान में रखा। ये उनका आशीर्वाद ही है कि मैं “दरबारी ग़ज़ल और शाम ए अख्तरी” जैसी ग़ज़ल महफिलों को सफलतापूर्वक अंजाम दे पाती हूं।
शास्त्रीय संगीत गायन जैसे ठुमरी, खयाल, दादरा, कजरी, टप्पे और चैती के अपने ४० वर्षों की साधन ही है जो मुझे बेगम अख़्तर साहिबा की रचनाओं को गाने की हिम्मत देती है। मेरा विश्वास है कि बिना शास्त्र में पारंगत हुए बेगम साहिबा की ग़ज़ल शैली को नहीं निभाया जा सकता।
प्रसिद्ध संगीतकार नौशाद साहब के आशीर्वाद वचन हमेशा मेरी हौसला अफज़ाई करते रहते हैं , जब उन्होंने मेरी ग़ज़ल कंसर्ट सुनकर आशीर्वाद दिया और कहा कि ‘ सोमा जी बरसों बरसों बाद बेगम अख़्तर की रूह को मैने आपकी गायिकी में देखा है। आप ग़ज़ल को बचा लीजिए। ग़ज़ल रूह से गले तक चली आई है उसे दुबारा रूह तक आप ही ले जा सकती हैं।”
नौशाद साहब का दर्द उनके चेहरे से साफ़ झलक रहा था। उनकी बातें उनका आशीर्वाद मेरे अंदर घर कर गया और मैंने बीड़ा उठाया कि बेगम अख़्तर की ग़ज़ल गायिकी की परंपरा को न सिर्फ़ जिंदा रखने को मैं समर्पित रहूंगी बल्कि इससे नई पेढ़ी को भी जोडूंगी। इसके लिए ग़ज़ल कंसर्ट के अलावा मेरी निरंतर कोशिश स्कूली संगीत छात्र छात्राओं को शिक्षित करने की भी रही है। आज बेगम अख़्तर साहिबा को दुनिया से गए पचास वर्ष यानी आधी सदी हो चुकी है, मगर उनकी गाई ग़ज़लों की खुशबू आज भी बरकरार है, जिसे मैं पूरी जिम्मेदारी से अपने गायन के जरिए फ़ैलाने को कोशिश कर रही हूं।
फ़िराक़, महादेवी, निराला, बच्चन और अकबर इलाहाबादी के शहर प्रयागराज के सुधी श्रोताओं के रूबरू ग़ज़ल गाने की तमन्ना 17 मार्च ‘ 24 को पूरी होने जा रही है। कहकशां के साहित्योत्सव के समापन की शाम “ग़ज़ल का सफ़र: बेगम अख़्तर से सोमा घोष तक” प्रस्तुति में आपसे मुलाकात होगी। उम्मीद है आप सभी सुधी ग़ज़ल प्रेमियों की मौजूदगी से एक नई इप्तिदा होगी जिसमें साहित्य (ग़ज़ल), श्रोता और संगीत का मनोहर संगम होगा।
साभार – डॉ सोमा घोष