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बिना पूर्ण ज्ञान के किसी विद्या पर टिपणी करना है पाप

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अघोर, तंत्र विद्या को पूर्ण रूप से समझें बिना नाकार देना अज्ञान है एवं बिना पूर्ण ज्ञान के किसी विद्या पर टिपणी करना पाप है।

तंत्रोक्त पञ्चमकार का वैज्ञानिक रहस्य क्या है ?

कौलाचार के विषय में बड़ी भ्रांत धारणाएं फैली हुई हैं। तंत्रों के प्रति लोगों के हृदय में जो एक अवहेलना तथा तिरस्कार का भाव बना हुआ है उसका प्रधान कारण इस आचार का अपर्याप्त ज्ञान है। ‘कौल’ शब्द का अर्थ ध्यान देने योग्य है। कौल वह है जो शक्ति को शिव के साथ मिलन करने में समर्थ होता है। ‘कुल’ का अर्थ है शक्ति या कुण्डलिनी और ‘अकुल’ का अर्थ है शिव। जो योगक्रिया से कुण्डलिनी का अभ्युत्थान कर सहस्रार में स्थित शिव के साथ सम्मेलन करता है वही कौल है। स्वच्छन्दतंत्र का कहना है-

कुलं शक्तिरिति प्रोक्तकुलं शिव उच्यते। कुलेऽकुलस्य संबंध: कौलमित्यभिधीयते।।

कुल या कुण्डलिनी शक्ति की कुलाचार का मूल अवलम्ब है। कुलाचार ही कौलाचार या वामाचार के नाम से प्रसिद्ध है। यह आचार, मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा और मैथुन-इस पञ्च ‘म’ कार या पञ्चतत्त्व या पञ्चमुद्रा के सहयोग से अनुष्ठित होता है-

मद्यं मांसं मत्स्यं च मुद्रा मैथुनमेव च। मकारापञ्चकं प्राहुर्योगिनां मुक्तिदायकम्।।

इन पञ्च मकारों का रहस्य नितान्त गूढ़ है। वास्तव में बात यह है कि ये आभ्यन्तर अनुष्ठान के प्रतीक हैं। जो कोई इन्हें ब्रह्म तथा भौतिक अर्थ में प्रयोग करता है वह यथार्थ बात से बहुत ही दूर है।

मद्य-मद्य का अर्थ बाहरी शराब नहीं है, प्रत्युत ब्रह्मरंध्र में स्थित जो सहस्रदल कमल है उससे जो सुधा क्षरित होती है उसे ही मद्य कहते हैं। उसी को पीने वाला व्यक्ति मद्यप कहलाता है। यह खेचरी मुद्रा के द्वारा सिद्ध होता है। इसीलिए तंत्रों का कथन है-

व्योमपंकज निस्यन्दसुधापानरतो नरः।
मधुपायी समः प्रोक्तस्त्वितरे मद्यपायिनः ।। जिह्वया गलसंयोगात् पिबेत् तद्यूतं तदा। योगिभिः पीयते त्त्तु न मद्यं गौडपैष्टिकम्।।

इसका पहला ‘कुलार्णव’ का और दूसरा ‘गंधर्वतंत्र’ का वचन है। मांस-जो पुरुष पुण्य और पापरुपी पशुओं को ज्ञानरूप खड्ग के द्वारा मार डालता है और अपने मन को ब्रह्म में लीन करता है वही मांसाहारी है। कुलार्णव का कथन है-

पुण्यापुण्ये पशुं हत्वा ज्ञान खड्गेन योगवित्। परे लयं नयेच्चितं मांसाशो स निगद्यते ।।

मत्स्य सिरस्थ इड़ा और पिंगला नाड़ियों का नाम गंगा और यमुना है। इसमें प्रवाहित होने वाले श्वास और प्रश्वास दो मत्स्य हैं। जो साधक प्राणायाम द्वारा श्वास बंद कर कुम्भक के द्वारा प्राणवायु को सुषुम्ना के भीतर संचालन करता है, वहीं यथार्थतः मत्स्य- साधक है। ‘आगमसार’ कहता है-

गंगायमुनयोर्मध्ये द्वौ मत्स्यो चरतः सदा। तौ मत्स्यौ भक्षयेद् यस्तु स भवेन्मत्स्यसाधकः।

मुद्रा-सत्संग के प्रभाव से मुक्ति मिलती है और असत् संग के प्रभाव से बंधन प्राप्त होता है। इसी असत्-संग के त्याग का ही नाम मुद्रा है। ‘विजयतंत्र’ का यही मत है-

सत्संगेन भवेन्मुक्तिरसत्संगेषु बन्धनम्। असत्संगमुद्रणं यतु तन्मुद्रा परिकीर्तिता ।।

मैथुन-मैथुन का अर्थ है मिलना। किसका ? सहस्रार में स्थित शिव का तथा कुण्डलिनी का अथवा सुषुम्ना प्राण का। स्त्री सहवास में वीर्यपात के समय जो सुख मिलता है उसे शत-कोटिगुणित अधिक सुख सुषुम्ना में प्राणवायु के स्थित होने से मिलता है। यही वास्तविक मैथुन है-

ईडापिंगलयोः प्राणन् सुषुम्नायां प्रवर्तयेत्। सुषुम्ना शक्तिरुद्दिष्टा जीवोऽयं तु पर शिवः ।। तयोस्तु संगमे देवैः सुरतं नाम कीर्तितम्।

इन अर्थों से स्पष्ट है कि पंच मकारों का संबंध अंतर्याग से है। इसका अधिकारी भी साधारण व्यक्ति नहीं होता, प्रत्युत उच्च कोटि का साधक ही इसका उपयुक्त पात्र है, जो परद्रव्य के विषय में अप्धतुल्य, परस्त्री के विषय में नपुंसक तुल्य परनिन्दा में मूकतुल्य तथा जितेन्द्रिय है वहीं वाममार्ग का अधिकारी है।

परद्रव्येषु योऽन्धश्च परस्त्री नपुसंकः ।
परापवादे या मूल सर्वदा विजितेन्द्रियः।।
तस्यैव ब्राह्मणस्यात्र वामे स्यादधिकारिता।

इसके अतिरिक्त भी कर्मकाण्ड व तंत्र शास्त्र में मद्य-मास निषेधात्मक अनेक प्रमाण प्राप्त होते हैं। यद्यपि सभी प्रमाण व तर्क एक साथ नहीं दे पा रहे हैं परन्तु उपर्युक्त प्रमाण ही सारांशतः यह बताने के लिए पर्याप्त हैं कि मद्य-मांस सेवन भारतीय संस्कृति-सभ्यता का आदर्श कभी नहीं रहा।

इस अवसर पर चाणक्य का एक सूत्र ‘नीचस्य विद्याः पापकर्मणि योजनयन्तिः’ नीच जन विद्या प्राप्त करके उसका दुरुपयोग ही करते हैं। सदुपयोग नहीं। अंत में आशुतोष चन्द्रमौलीश्वर भगवान् शंकर से यही प्रार्थना है कि नास्तिक व राक्षसी बुद्धि वालों को सद्बुद्धि प्रदान करें। भगवान शिव की भक्ति श्रीराम भी करते थे और रावण भी, रावण ने अपनी शक्तियों का दुरुपयोग किया जिसके कारण रावण को अपयश व दुर्गति मिली। अपनी शक्ति का सदुपयोग करो।

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