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पेड़ों को लाल और सफेद रंगने का प्रचलन बहुत पुराना है, और सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि यूरोप के फल बागानों और अमरीका के उद्यानों में भी पेड़ रंगे जाते हैं। जमीन से आमतौर पर कम से कम 12 इंच और अधिकतम 6 फीट तक रंगाई की जाती है। ऐसे पेड़ों को नहीं रंगा जाता जिनकी उम्र 5 वर्ष से कम होती है, क्योंकि कम उम्र में पेड़ के तने मुलायम होते हैं और उनमें से शाखाएं निकलती हैं।
यह एक बहुत पुरानी प्रक्रिया है जिसके शुरू करने के कई कारण रहे है| आज़ादी के बाद वनों को संरक्षित करने हेतु एक स्वत्रन्त विभाग बनाया गया जिसे वन विभाग नाम दिया गया| प्रारंभ के 5-6 वर्षों के कार्यकाल में वन विभाग ने देश के संपूर्णा वनों का लेखा जोखा तैयार किया तथा वनों के संरक्षण हेतु विभिन्न उपायों पर कार्य आरंभ किया, जिनमें से वृक्षों का को चिन्हित करने के अलावा उनकी पहचान एवम् वृद्धि के कई उपाय शामिल थे | पेड़ों में लगे पेंट आम पेंट नही होते हैं। उनका महत्व अलग होता है।
आइये जानते हैं ऐसा क्यों किया जाता है:
पेड़ों पर लगाये गए पेंट को लाइम पेंट भी कहते हैं। जो कि कैल्शियम हैड्रॉक्साइड से बना होता है। इनसे बने पेंट जो सफेद होते हैं पेड़ों के निचले भाग पर लगाया जाता है जिसे वाइट वाश भी कहते हैं। इसका मुख्य काम होता है पेड़ों की सुरक्षा करना सूर्य की हानिकारक किरणों से, जिससे पेंड़ के तने में कोई दरार ना आये। पेड़ों के तने में दरार से पेड़ बाहरी नुकसान के लपेटे में आ जाता है जो अंततः पेड़ की मृत्यु में बदल जाती है।
पेड़ों के ऊपरी हिस्सो पे लगा लाल पेंट गॉर्ड पेंट यानी रक्षक पेंट भी कहा जाता है। इनका ऍप्लिकेशन्स भी लाइम पेंट जैसे ही होता है बस ये फर्क होता है कि ये पानी के साथ ५०% तक घोले जाते हैं। इनका मुख्य काम पेड़ों की सुरक्षा सनबर्न से करना होता है। इन पेंट से पेड़ों की उम्र लंबी होती है। भारत ही नहीं दुनिया के कई देशों में इसका इस्तेमाल किया जाता है।
ये रंग कोई सामान्य लाल सफेद रंग नहीं होते। लाल असल में गेरू (ochre) रंग की मिट्टी होती है, जिसमें लोहे का ऑक्साइड अधिक होता है। इसे घोलकर हजारों वर्षों से रंग की तरह उपयोग किया जाता रहा है, प्राचीन गुफाओं के चित्रों को भी गेरू से बनाया जाता था। जो सफेद रंग होता है उसे सामान्य भाषा में चूना (lime) कहते हैं। यह कैल्शियम ऑक्साइड होता है, जिसमें पानी मिलने पर कैल्शियम हाइड्रोक्साइड बनता है। गेरू और चूना सस्ते भी होते हैं और इनके कई फायदे भी हैं जिसके कारण पेड़ों पर ये रंग किए जाते हैं।
पहला फायदा है कीड़ों और फफूंद से सुरक्षा। पेड़ों के तनों में अनेक प्रकार के कीड़े जैसे स्टेम बोरर, और फफूंद (फंगस) लग जाते हैं। गेरू और चूना पोतने से तने के ऊपर एक सुरक्षात्मक परत बन जाती है। गेरू का अम्लीय और चूने का क्षारीय प्रभाव भी कीट पतंगे और फफूंद को रोकता है। अगर कीड़े लग भी जाएं तो रंग के बीच में आसानी से दिख जाते हैं जिससे जल्दी इलाज किया जा सकता है।
दूसरा बड़ा फायदा है तेज धूप से बचाव। खुले क्षेत्रों जैसे उद्यान, सड़क के किनारे या घर पर पेड़ लगा होने पर पेड़ के निचले हिस्से पर भी गर्मी में तेज धूप लगती है। इस धूप से तने की छाल फटती है, और पेड़ में जैविक क्रियाएं होती हैं जिससे पेड़ खराब हो सकता है। चूना और गेरू इस गर्मी को रोकते हैं और पेड़ को नुकसान से बचाते हैं। यूरोप में फलों की खेती में तेज धूप पड़ने पर पेड़ कमजोर होते हैं और पैदावार कम होती है, इसलिए वहां भी किसानों को सफेदी करने की सलाह दी जाती है।
रंगने का तीसरा कारण है निशान लगाना। वन विभाग अपने संरक्षण के पेड़ों को चिन्हित करने के लिए भी गेरू चूने की पुताई करवाता है। यह सस्ता और सुलभ तरीका है जिससे सभी को ज्ञात हो जाता है कि चिन्हित पेड़ संरक्षित हैं और इन्हें काटना या नुकसान पहुंचाना गैरकानूनी हो सकता है।
सड़क किनारे के पेड़ों को रंगने से एक फायदा और होता है, ये पेड़ रात में गाड़ियों की रोशनी में साफ दिखते हैं और सड़क की चौड़ाई का ध्यान रखने में चालक की सहायता करते हैं। इससे पेड़ देखने में एकरूप भी लगते हैं और पर्यावरण की सुंदरता बढ़ती है।
आजकल लोग नासमझी में पेड़ों पर भांति भांति के रंग कर देते हैं जो सुंदरता के लिए तो ठीक है लेकिन पेड़ों के लिए फायदेमंद होने की जगह नुकसानदायक होता है। एक जगह खबर आई थी कि पेड़ों को तिरंगे के रंग में रंग दिया गया। दूसरी जगह एक जोशीले भाजपा नेता ने पेड़ गेरू की जगह भगवा रंग से पुतवा दिए।