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इंसान को अपने विचार थोपने और दूसरों के विचार स्वीकार करने में क्यों परेशानी आती है ?

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निजी विचार से तात्पर्य है कि आप जिस वैल्यू के साथ अपने जीवन को जी रहे हैं य जिन संस्कारों , आत्म संयम और अनुशासन के साथ जीवन का आनंद उठा रहे हैं यह आपका निजी विचार और जीवन का सत्य हो सकता है परंतु यदि आप चाहे कि दुनिया का हर व्यक्ति इसी का पालन करें तो यह उस व्यक्ति पर थोपना होगा जिसे आप जबरदस्ती इन मूल्यों को मानने के लिए फोर्स कर रहे हैं यदि व्यक्ति स्वेच्छा से इन मूल्यों का आचरण करता है तो ठीक है परंतु थोपे हुए मूल्य या आचरण सिर्फ किसी व्यक्ति के बाहरी व्यवहार में आ सकता है आचरण में नहीं । सत्य को लेकर हर व्यक्ति की एक सोच होती है। जब तक उसकी नज़र में वो सत्य नहीं बदलता तब तक सोच का बदलना भी मुश्किल है। हाँ ये बात भी है कि सत्य की तस्वीर का एक ग़लत ख़ाका उसके दिमाग में हो सकता है। आपके जीवन में किसी को लेकर के अच्छी या बुरे ओपिनियन हो सकते हैं परंतु यदि आप चाहें कि आप के दृष्टिकोण से दुनिया भी उस व्यक्ति को आपके नजरिए से देखें तो यह थोपना होगा ।

कहाँ से आता है ये सत्य?

आपका सेंस डेटा(sense-data) कहाँ से आता है जिस पर आपका मस्तिष्क काम करता है और आप किसी नतीज़े पर पहुँच सकते हो? शुरुआत कहाँ से होती है? चलिए इसको समझने की कोशिश करते हैं—

प्रथम चरण में

शुरुआत में ये आ सकता है—

  • माँ-बाप से, परिवार एवं रिश्तेदारों से
  • आपके मौहल्ले पड़ोस से
  • स्कूल,कॉलेज के साथियों(Peer group) से
  • अध्यापकों से
  • किताबों से
  • धर्म से फतवों के रूप में (ये बात हर धर्म पर लागू होती है फतवों की शक़्ल अलग हो सकती है)

प्रथम चरण के पॉइंट्स विस्तार में

अब इन पॉइंट्स को थोड़ा विस्तार में लेते हैं—

इस स्टेज में पॉइंट 1, 2, 3, और पॉइंट 6 में सेंस डेटा(sense data) का आप चुनाव नहीं करते। वो आपके दिमाग की खाली स्लेट पर उड़ेला जाता है।

पॉइंट 4 और पॉइंट 5 में भी आपके मस्तिष्क में सीधे सीधे उड़ेलना की प्रक्रिया का भरपूर इस्तेमाल होता है लेकिन कभी कभी ये आपको द्वितीय चरण में भी ले जाता है। यानी चिंतन प्रक्रिया में आप आ सकते हो।

कारण ये होता है कि किताबों का ज्ञान सिर्फ आपके दोस्त, पड़ोस या रिश्तेदारों तक सीमित नहीं होता वो दुनिया में फैले ज्ञान को समेटे होता है। और उसमें बहुत कुछ ऐसा भी होता है जो आपकी मान्यताओं से टकराता है। यही टक्कर आपको सोचने की प्रक्रिया में भी ला सकती है। और ऐसा भी हो सकता है कि आपने पढ़ा और परीक्षा के वक़्त कॉपी पर उतार दिया फिर बात खत्म।

ऐसा नहीं है कि पॉइंट 1, 2,3 और पॉइंट 6 आपको चिंतन प्रक्रिया में नहीं ला सकते लेकिन वहाँ विचार को सीधे सीधे मस्तिष्क में रख लेने का नैतिक दबाव ज़्यादा होता है। जैसे—

  • माँ बाप कह रहे हैं तो बात माननी ही पड़ेगी या माननी चाहिए।
  • दोस्तों की बात है भरोसे के लोग है तो मान लो।
  • धर्म जो कहता है तो उसपर सवाल जवाब ठीक नहीं।

और ऐसा भी नहीं कि अध्यापकों से या किताबों से ज़रूरी रूप से आपको चिंतन की प्रक्रिया में लाए। अध्यापक भी आपकी तरह ही प्रोग्राम्ड(Programmed) हो सकते हैं लेकिन उन्हें सिलेबस पढ़ाना होता है तो वहाँ कुछ बाते आपको ऐसी मिल सकती हैं जो चिंतन की प्रक्रिया में लाए भले ही अध्यापक प्रोग्राम्ड हो।

और किताबें कई बार वो काम भी कर जाती है जो काम धर्म,दोस्त,पड़ोस या माँ बाप करते हैं। मानलो आप ऐसी किताबे पढ़ते हो जो आपके दिमाग में पहले से उड़ेले हुए विचारों को सपोर्ट करता है और वो उड़ेला हुआ बोरा दुर्भाग्य से ग़लत हो तो आपकी हालात और बिगड़ सकती है।

यहाँ ये मतलब नहीं है कि कोई बात इसलिए ग़लत हो जाती है कि वो माँ बाप ,परिवार,रिश्तेदारों या धर्म से आती है। वो इसलिए गलत होती है कि वो आपके मस्तिष्क में सही मायने में कॉग्निटिव एक्ट (Cognitive Act) से होकर नहीं गुजरती है। यानी माइंड कुछ खास करता नहीं बस डेटा अपनी अलमारी में बंद करके रख लेता है। उसमें आप विश्लेषण कम करते हो । वो एक तरह का कॉग्निटिव डिसटोरसन (Cognitive distortion) होता है।

द्वितीय चरण

यहाँ आपके चिंतन की भूमिका शुरू होती है। समाज का बड़ा हिस्सा यहीं मार खा जाता है। जो सेंस डेटा हमें हमारे समाज से मिलता है चाहे वो समाज में हो रही घटनाओं के रूप में हो , समाज की दी हुई नसीहत के रूप में हो या समाज के द्वारा लिए गए फैसलों के रूप में हो उसे हम गिफ़्ट पैक समझ कर रख लेते हैं।

ऐसा लगता है कि जैसे प्लास्टिक के खिलौने को बीच से चीरकर उसमें क्ले भर दी जाती है और क्ले खिलौने का रूप ले लेती है। आपको लगता है ये मेरे विचार हैं लेकिन आपकी सोच का एक बड़ा हिस्सा प्रोग्राम्ड(Programmed) होता है। ये आपको सोचने के भ्रम में रखता है। आपको लगता है कि आप सोच रहे हो। लेकिन आपका मस्तिष्क पहले ही एक आकृति ले चुका होता है । यानी हम ना के बराबर सोचते हैं।

अगर एक लंबा अरसा हमने बिना सोचे गुजार दिया है तो अचानक सोचना ऐसा होगा जैसे आपके घुटनों के कार्टिलेज घिस गया हो और कोई आप से कहे कि थोड़ा चलकर दिखाओ। तो आप नहीं चल पाओगे। और अगर कोई ज़्यादा जिद करेगा तो आपको गुस्सा भी आएगा।

यही होता है नये विचार को स्वीकार करने की प्रक्रिया में। यहाँ ये मतलब नहीं है कि एक प्रोग्राम्ड(Programmed) व्यक्ति को दूसरे प्रोग्राम्ड(Programmed) व्यक्ति के विचारों को स्वीकार करने में दिक्कत आती है। वो आएगी ही। यहाँ नये विचार से मतलब है सोचने की प्रक्रिया में जाना।

सोचने से मतलब मेथोडीकल डाउट(Methodical Doubt) का भरपूर इस्तेमाल। दिमाग़ के हर बैग को खोलकर देखो कि कहीं इसकी सामग्री किसी और की परोसी हुई तो नहीं । उसमें देखो कितना आपने सिर्फ़ मान लिया है और कितना चिंतन की प्रक्रिया से गुजरा है।

नये विचारों को स्वीकार करने की चुनौती किस बात में है?

क्या ऐसा संभव है कि हम व्यक्ति के दिमाग़ के प्रोग्राम्ड (Programmed) हिस्से को अनप्रोग्राम्ड (Unprogrammed) कर दे? नए विचारों को स्वीकार करने की चुनौती इसी में निहित होती है।

नये विचारों की स्वीकृति मान्यताओं(assumptions) के बैग्स का लेनदेन नहीं होता है। ये संतुलन का मसला नहीं है कि देखो मैंने तुम्हारे इस विचार को स्वीकार किया है तो तुम भी मेरे विचार को पूरा नहीं तो कुछ हद तक स्वीकार करो। जिसे तुमने खुद जाँचा परखा नहीं जो सीधा तुम्हारे दिमाग में रख दिया गया हो वो ही तुम दूसरे से उम्मीद करते हो कि वो भी इसे स्वीकारे। ये बिना सवालों से गुजरी मान्यताओं को रौंदने की हिम्मत है।

सबसे बड़ी चुनौती यही है कि क्या हम अपने रोबोटिक व्यक्तित्व को छोड़कर सोचने की हिम्मत कर सकते हैं?

निजी विचार तभी भी सर्व संमान्य हो सकते हैं जब वे वेद के अनुसार, स्मृति वेदानुसार, सदाचार स्मृति अनुसार, हो तभी निजी विचार सर्वथा समुचित हैं! अचेतन प्रकृति मात्र सृष्टि निर्माण में सर्वथा असमर्थ है! ईश्वर निरुद्देश्य कुछ भी नहीं कर सकता अत:भोक्ता का होना नितान्त आवश्यक है, इसलिए तीनों कारणों का होना परमात्मावश्य है! अत:वेद प्रोक्त त्रैतवाद ही सर्वमान्य हो सकता है शेष सभी मत अमान्य हैं! पुन:मनु कहते हैं:-वेदोsखिलो धर्ममूलम्! वेद ही सभी धारण करने योग्य धर्म के मूल हैं! पुनश्च:-यस्तर्केणानुसंधत्ते स एव धर्मः नेतर: अर्थात् जो विषय वेद एवं तर्कद्वारा प्रमाणित होता हो वही धारण करने योग्य धर्म, माननीय है अन्यथा अमान्य है!

अपनी निजी सोच तभी सर्वमत होती है जब वह वेदानुकुल हो! मनुस्मृति में मनु महाराज ने कहा है:-

वेद:स्मृति:सदाचार:स्वस्य च प्रियमात्मन:!
एतच्चतुर्विधं प्राहुःसाक्षाद्धर्मस्य लक्षणम्!!

विचार कहाँ और कैसे उत्पन्न होते हैं?

इसको एक कहनी के माध्यम से समझने की कोशिश करता हूं कि विचार कैसे उत्पन्न होते हैं और इसका प्रभाव कैसे इंसान के जीवन पर पड़ता है तो एक बार एक आदमी रेगिस्तान में चल रहा था जो दूर दुर तक कोई पेड़ की छाया तक नही दिखाई दे रही थी जो मुश्किल से एक पेड़ मिला तो आदमी पेड़ के नीचे आराम करने लगा और सोचने लगा कि काश पेड़ से फल मिल जाते तो कुछ खाने को मिल जाते तो कितना अच्छा होता है जो उसके सोचने मात्र से बहुत सारे फल उसके पास पेड़ से गिरकर पास आ गए तो उसको खाने के बाद सोचने लगा कि अभी नींद आ जाए तो उसको थोड़े समय में नींद आ गई तो शाम हो गई तो उसकी नींद खुली तो अंधेरा हो चुका था तो सोचने लगा कि अधेरा हो चुका है भूत भी आ सकते है तो भूत भी आ गए तो सोचने लगा कि भूत अब परेशान करेगे और मुझे मार डालेंगे तो ऐसा सोचते ही भूत उसको मार डाले तो कहने का मतलब यही हुआ कि इंसान जैसा सोचता है वैसा ही उसके जीवन में होता रहता है जो विचार ही इंसान को ऊपर से नीचे नीचे से ऊपर करने में अहम रोल अदा करते रहते हैं।

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