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ये कथा है श्री जगन्नाथ और हनुमान की

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कथा बेड़ी हनुमान जी की
ये कथा है श्री जगन्नाथ और हनुमान की स्कन्द पुराण के अनुसार पुरी के श्री जगन्नाथ मंदिर प्रथम की रचना सतयुग में मालवा के राजा इन्द्रद्युम्न और रानी गुंडिचा ने करवाया था। इसमें शिल्पीकार स्वयं विश्वकर्मा जी थे और प्राण प्रतिष्ठा ब्रह्मा जी ने करवाया था। पूरी के जगन्नाथ मंदिर के निर्माण से लेकर रक्षा तक हनुमान जी ने सदैव राम काज में लगे रहे। और मंदिर निर्माण का कार्य पूर्ण होने पर हनुमान जी लग गए अपने सबसे प्रिय कार्य में, यानी राम जप में।

पुरी के राजा इंद्रद्युम्न और रानी गुंडिचा के देहांत के बाद एक समय ऐसा भी आया के समुद्रदेव भी अपने आपको भगवान जगन्नाथ के दर्शन से न रोक सके। जब वे मंदिर की ओर बढे, तो सागर का जल और प्रचंड तूफान पुरे पूरी नगरी में प्रवेश करने लगा। मंदिर के शिखर पर लगा नील चक्र भी हिलने लगा। तब हनुमान जी ने अष्टभुजा रूप धारण किया मंदिर के शिखर पर लगे नील चक्र को गिरने से बचा लिया और पुनः शीर्ष पर स्थापित कर दिया।तबसे हनुमान जी को दायित्व मिला के मंदिर के और भक्तो की रक्षा की, सागर की लहरो की आवाज़ भी मुख्य मंदिर में नहीं आती। आगे चलकर मंदिर में अष्टभुजा हनुमान की स्थापना हुई।

जगन्नाथ जी के आज्ञा से हनुमान जी पुरी धाम के सभी भक्तो की रक्षा में लगे रहे। यहाँ तक के उन्होंने एक बार कामदेव के दांत भी खट्टे कर दिए थे क्युकी कामदेव श्री मंदिर में अपने विद्याओ उपयोग कर रहे थे। युद्ध के पश्चात पुरे पुरी धाम को कामदेव के अकारण अति से अंत मिला और लोग पुनः धर्म कर्म में लग गए। पर बेचारे हनुमान जी केवल मंदिर के बाहर,भक्तो और मंदिर कि रक्षा में लगे रहते थे। हनुमान जी भी जगन्नाथ प्रभु के दर्शन को लालायित रहते पर जैसे ही गर्भगृह की ओर बढ़ते, सागर फिर उनके पीछे पीछे मंदिर की ओर बढ़ने लगता।अंततः हनुमान जी ने अपने प्रभु को पुकारा और उनकी दुविधा से अवगत करवाया। तब हनुमान जी को भगवान दर्शन दिए और स्वर्ण की बेड़िया दी जिसमे राम नाम लिखा था जिससे हनुमान जी ने स्वयं को बांध लिया और वह सागर को अंदर प्रवेश करने के लिए वहां विराजित हो गए। इन कथाओ का वर्णन आपको ब्रह्म पुराण, नारद पुराण और स्कन्द पुराण के उत्कल खंड में मिलता है।

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