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कहानी : अनोखी शर्त

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महर्षि अगस्त्य की पत्नी लोपामुद्रा जब ऋतुस्नान करके हलका सा श्रंगार करके महर्षि के सामने आईं तब महर्षि अगस्त्य की नजरें उन पर स्थिर हो गईं । लोपामुद्रा अनिंद्य सुन्दरी थीं । उनके सौन्दर्य के समक्ष अप्सराऐं भी लज्जित होती थीं । महर्षि अगस्त्य ने उनकी रचना भी बेजोड़ तरीके से की थी । प्रत्येक जानवर के श्रेष्ठ अंग लेकर उन्होने एक स्त्री शरीर बनाया और जब वह बन गया तब उसे विदर्भ के राजा को उनकी याचना पर लालन पालन हेतु दे दिया । लोपामुद्रा का लालन पालन विदर्भ के महलों में हुआ । एक सुन्दर शरीर को जब महलों का विलास मिल जाता है तब उसका सौन्दर्य सौ गुना बढ़ जाता है । लोपामुद्रा का यौवन भी रात रानी की तरह महकने लगा था ।

जब महर्षि अगस्त्य को महसूस हुआ कि अब उन्हें संतानोत्पत्ति करनी है तब उन्हें अपनी कृति लोपामुद्रा की याद आई । वे विदर्भ के राजा के पास गये और अपनी कृति का हाथ मांग लिया । राजा विदर्भ पुत्री के मोह में पड़कर उनका आग्रह टालना चाहते थे मगर वे महर्षि अगस्त्य की शक्तियों से भली भांति परिचित थे इसलिए टाल नहीं पाये । उन्होंने रानी से भी मंत्रणा की पर कोई समाधान नहीं निकला ।

महर्षि के कोप से बचाने के लिए स्वयं लोपामुद्रा आगे आई और पिता से कह दिया कि वे उसका कन्यादान कर दें । उस समय वह राजकुमारी के राजसी वस्त्र और आभूषण पहने हुए थी । लोपामुद्रा को राजसी वैभव में देखकर महर्षि अगस्त्य ने कहा “मेरी कुटिया में तुम्हें एक तपस्विनी बनकर रहना होगा और एक तपस्विनि के लिए रेशमी वस्त्रों और आभूषणों की क्या आवश्यकता है ? लो, ये वल्कल वस्त्र धारण कर लो और ये गहने तथा आभूषण यहीं छोड़ दो” ।

महर्षि की बात सुनकर लोपामुद्रा ने एक पल भी नहीं लगाया था उन विलासिता की सामग्री को त्यागने में । और वह जूट की बनी धोती में महर्षि के साथ चलने को उद्यत हो गई ।

महर्षि अगस्त्य की कुटिया में लोपामुद्रा एक तपस्विनी की तरह रहने लगी । दोनों पति पत्नी अभी भी ब्रह्मचर्य व्रत का पालन कर रहे थे ।

एक दिन जब लोपामुद्रा ऋतुस्नान करके महर्षि अगस्त्य के सम्मुख आई तो महर्षि उसके आकर्षण से बच नहीं सके और उन्होंने अपने हाथ आगे बढ़ाकर लोपामुद्रा को पकड़ना चाहा । लोपामुद्रा सकुचाते , लजाते , मुस्कुराते हुए पीछे हट गई ।

“क्या बात है लोपा ? पीछे क्यों हट गईं ? हम दोनों गृहस्थ आश्रम में हैं और गृहस्थ धर्म के अनुसार संतति उत्पन्न करना हमारा कर्तव्य भी है । आओ , हम अपने दायित्व का निर्वाह करें” । महर्षि अगस्त्य आगे बढते हुए बोले ।

“क्षमा करें स्वामी , मैं एक तपस्विनी के आभूषण और वस्त्र पहनकर समागम नहीं कर सकती हूं । समागम के लिए उपयुक्त वातावरण का होना आवश्यक है । समागम के लिए मैं एक राजकुमारी जैसे वस्त्र, आभूषण और राजमहल जैसा ही वातावरण चाहती हूं अर्थात राजकुमारी जैसे वस्त्र, आभूषण, पलंग , गद्दे आदि हों तो ही मैं सहवास में भाग लूंगी अन्यथा नहीं” ।

महर्षि अगस्त्य बड़े असमंजस में पड़ गये । उन्होंने लोपामुद्रा को समझाने का प्रयास किया “अब आप राजकुमारी नहीं बल्कि एक तपस्विनी हो और मैं एक साधु । आप अच्छी तरह से जानती हो कि मैं ये सब व्यवस्था नहीं कर सकता हूं । फिर मेरा तिरस्कार क्यों कर रही हो” ? महर्षि लोपामुद्रा से याचना करते हुए बोले

“स्वामी , मैं आपका तिरस्कार स्वप्न में भी नहीं कर सकती हूं । ये नारी सुलभ हठ है स्वामी , और कुछ नहीं । आप तो सर्व सामर्थ्यवान हैं , आपके लिए ये चीजें बहुत तुच्छ हैं । आप जब इन वस्तुओं की व्यवस्था कर लेंगे , मैं आपका मनोरथ पूरा करने के लिए उपस्थित रहूंगी । मैंने आज ही ऋतुस्नान किया है । यह समय अभी 14 दिन और चलेगा । अत: इन दिनों में ही आप समस्त व्यवस्था कर लीजिए नहीं तो आपको अगले मास तक रुकना पड़ जाएगा” ।

लोपामुद्रा ने एक अनोखी शर्त रख दी थी महर्षि के समक्ष । लोपामुद्रा की भावनाओं और उसके अधिकारों की रक्षा करते हुए महर्षि अगस्त्य उन वस्तुओं की व्यवस्था करने के लिए घर से निकल गये ।

वे सबसे पहले राजा श्रुतर्वा के पास गये और उनसे धन की याचना की । राजा ने अपने समस्त लेखे महर्षि अगस्त्य के सामने खोल दिये और निवेदन किया कि यदि आप व्यय से अधिक राशि आय में पायें तो आप वह आधिक्य अवश्य ले जाऐं । महर्षि ने देखा कि कोई आधिक्य नहीं है तब उन्होंने पूछा “फिर कौन सा राजा धनवान है” ?

“राजा ब्रघ्वश्व से अधिक धनी और कौन हो सकता है , महर्षि” ?

दोनों जने राजा ब्रघ्वश्व के पास पहुंचे । वहां भी वैसी ही स्थिति थी । दोनों ने किसी अन्य राजा का नाम पूछा तो उन्होंने राजा त्रसदस्यु का नाम ले दिया । तीनों जने राजा त्रसदस्यु के पास पहुंचे और वहां भी वही स्थिति पाई । तब राजा त्रसदस्यु ने दैत्य इल्वल का नाम ले दिया ।

चारों जने दैत्य इल्वल के पास पहुंचे तो दैत्य इल्वल उन्हें देखकर बहुत प्रसन्न हुआ । दरअसल इल्वल को ब्राह्मणों से वैर था इसलिए उन्हें मारने में उसे बहुत आनंद आता था । वैर होने का कारण यह था कि वह पुत्र प्राप्ति की इच्छा लेकर एक तपस्वी ब्राह्मण के पास गया और उससे पुत्रेष्टि यज्ञ करवाने के लिए कहा मगर उस ब्राह्मण ने मना कर दिया । बस इसी से वह ब्राम्हणों से चिढ गया और उन्हें मारने लग गया ।

उसने ब्राह्मणों को मारने का एक नया तरीका अपनाया । दैत्य इल्वल का एक छोटा भाई था जिसका नाम वातापि था । वह बकरा और भेड़ा बन सकता था । जब भी कोई ब्राह्मण उनके यहां आता वातापि बकरा या भेड़ा बन जाता था । इल्वल उसे मार देता था और उसका मांस पकाकर ब्राह्मणों को खिला देता था । उसके पश्चात इल्वल अपने भाई वातापि को आवाज लगाता और वातापि सारे पेट फाड़कर जिंदा होकर आ जाता था । पेट फटने से ब्राह्मण मर जाते थे ।

महर्षि अगस्त्य इल्वल और वातापि को जानते थे । उन्होंने चारों राजाओं को मांस खाने के लिए मना कर दिया । वातापि बकरा बना हुआ था । इल्वल ने उसे मारकर उसका मांस पकाया और महर्षि अगस्त्य को परोस दिया । महर्षि अगस्त्य अकेले सारा मांस खा गये और उन्होंने एक जोर की डकार ली ।

इल्वल ने वातापि को आवाज लगाई तो महर्षि अगस्त्य की गुदा से बहुत सारी अपान वायु बहुत तेज आवाज के साथ निकल गई । महर्षि अगस्त्य ने वातापि को पचा लिया था । अब इल्वल महर्षि के पैरों में गिरकर क्षमा मांगने लगा । तब महर्षि ने उससे धन मांगा और इल्वल ने महर्षि को बहुत सारा धन दे दिया । उस धन से महर्षि अगस्त्य ने लोपामुद्रा के लिए वस्त्र, आभूषण, श्रंगार का सामान और अन्य वस्तुऐं क्रय कीं । उन्हें देखकर लोपामुद्रा अत्यंत प्रसन्न हुई ।

लोपामुद्रा रेशमी वस्त्र पहनकर , आभूषण धारण कर और श्रंगार कर महर्षि के पास समागम हेतु आई । तब दोनों ने समागम किया और अगस्त्य जी ने लोपामुद्रा के गर्भ में अपना बीज स्थापित किया । सात वर्ष तक वह बालक लोपामुद्रा के गर्भ में ही रहा । उसके पश्चात वह बाहर आया । उसका नाम दृढस्यु रखा गया । दृढस्यु पैदा होते ही वेद , उपनिषदों के ज्ञाता हो गये और उन्होंने बहुत ख्याति पाई ।

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