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उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद -जब इंस्पेक्टर ने कहा- तुम बड़े मग़रूर हो!

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मुन्सी प्रेमचंद निरीह व्यक्ति थे… एकाकी भी! अपना बिगाड़ कर सारी दुनिया के सुधार का व्रत लिया ! दैहिक रूप में वे साहित्य जगत के वासी रहे… ऐहिक कार्य के दृष्टिकोण से देखें तो वे यहां रहते ही नहीं थे ! सामाजिक जीवन की चिंताओं को जीते रहे! पर, अपने पावं के जूते का छेद और जगरानी की जीर्ण धोती उनकी विषयवस्तु या कहें कि उद्देश्य कभी नहीं रहा!

प्रेमचंद बहुत स्वाभिमानी थे. गोरखपुर की दो घटनाओं से इसका जिक्र मिलता है. एक बार उनके स्कूल में निरीक्षण करने स्कूल इंस्पेक्टर आया. पहले दिन प्रेमचंद उसके साथ पूरे समय स्कूल में रहे. दूसरे दिन शाम को वह अपने घर पर आरामकुर्सी पर बैठे अखबार पढ़ रहे थे. इंस्पेक्टर की मोटरकार उधर गुजरी.

इंस्पेक्टर को उम्मीद थी कि प्रेमचंद उठकर उन्हें सलाम करेंगे लेकिन ऐसा कुछ न हुआ. इंस्पेक्टर ने गाड़ी रोक दी और अर्दली को भेजकर बुलवाया. शिवरानी देवी इस घटना का वर्णन करते हुए लिखती हैं कि इंस्पेक्टर के सामने जाकर प्रेमचंद बोले, ‘कहिए क्या है?

इंस्पेक्टर ने कहा, ‘तुम बड़े मग़रूर हो. तुम्हारा अफसर दरवाजे से निकला जाता है और तुम उठकर सलाम भी न करते?’ प्रेमचंद बोले, मैं जब स्कूल में रहता हूं तब नौकर हूं. बाद में मैं भी अपने घर का बादशाह हूं.’।

महान उपन्यासकार प्रेमचंद जी युग युगों में पैदा होने वाले दुर्लभ साहित्यकार थे उनमें स्वाभिमान कूट-कूट कर भरा हुआ था उन्होंने इंस्पेक्टर को बिल्कुल सही जवाब दिया जो उनकी प्रतिष्ठा में चार चांद लगाता है।

अगर आप ईमानदार हैं अपने दायित्व के प्रति तो किसी से डर नहीं लगेगा। लेकिन आज का दौर उस समय से अलग है। बेईमान तो फंसता ही कभी कभी ईमानदार भी परेशानी में पड़ जाते हैं। काल और परिस्थितियों के अनुसार काम करना चाहिए। अनावश्यक अकड़ दिखाना सही नहीं होगा।

उनके इस उत्तर में यह विचार स्पष्ट रूप से झलकता है कि व्यक्तिगत और पेशेवर जीवन के बीच की सीमाएँ कितनी महत्वपूर्ण हैं। वे यह दिखाना चाहते थे कि हर व्यक्ति का अपने निजी स्थान पर पूरा अधिकार होता है, जहाँ वे अपनी शर्तों पर जीवन जी सकते हैं। प्रेमचंद की इस प्रतिक्रिया से यह भी पता चलता है कि उन्होंने अपनी आत्म-सम्मान को किसी भी परिस्थिति में कम नहीं होने दिया और वह हमेशा अपने मूल्यों पर अडिग रहे। यह घटना उनके लेखन में भी झलकती है जहां उन्होंने अक्सर सामाजिक और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की वकालत की है।

स्वाभिमान ईमानदार लोगों का ही सर चढ़ के बोलता है। हर आदमी में इतनी गैरत तो होनी ही चाहिए, आत्मसम्मान को बनाए रखना ही असली धन है। इसे आत्मज्ञान और आत्मविश्वास से मजबूत बना कर रखे। जो व्यक्ति स्वार्थी नहीं है वह ही अपने स्वाभिमान की रक्षा करने में सक्षम है। 

मुन्शी प्रेमचन्द स्वाभिमानी, खुद्दार व स्पष्टवादी थे निजी स्वार्थ के लिए उन्होंने किसी की चाटुकारिता नहीं की वे कलम के सच्चे सिपाही थे शायद इसीलिए अपने कालजयी रचनाओं के लिए वे जाने जाते हैं। युगद्रष्टा हिन्दी-उर्दू के इस महान कथानायक की स्मृतियों को शत शत नमन ।

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