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रीस्वच्छन्दभैरव का स्वरूप

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श्रीस्वच्छन्दतन्त्र में स्वच्छन्दभैरव के निष्कल तथा सकलस्वरूप का वर्णन प्राप्त होता है। निष्कलमूर्ति निर्गुण-निराकार परमप्रकाशमय है। यह स्वरूप अनाख्य है।
त्रिपञ्चनयनं देवं जटामुकुटमण्डितम् ।
चन्द्रकोटिप्रतीकाशं चन्द्रार्धकृतशेखरम् ॥
पञ्चवक्त्रं विशालाक्षं सर्पगोनासमण्डितम् ।
वृश्चिकैरग्निवर्णाभैर्हारेण तु विराजितम् ॥
सगुण-साकार स्वरूप पांच मुख, पन्द्रहनेत्र तथा अठारह भुजाओं वाला है। इनकी आभा स्फटिक के समान श्वेतवर्ण की है, कण्ठ नीलवर्ण का है। इनके देह से दिव्य प्रकाश निर्झरित होता है। इनकी देहयष्टि कपालमाला, गोनाससर्प के आभूषण तथा रक्तवर्ण के वृश्चिकों की माला से सुशोभित है। इनकी देह सिंहचर्म से आवृत्त है साथ ही इन्होनें गजचर्म का उत्तरीय धारण किया हुआ है।
कपालमालाभरणं खड्गखेटकधारिणम् ।
पाशाङ्कुशधरं देवं शरहस्तं पिनाकिनम् ॥
वरदाभयहस्तं च मुण्डखट्वाङ्गधारिणम् ।
वीणाडमरुहस्तं च घण्टाहस्तं त्रिशूलिनम् ॥
वज्रदण्डकृताटोपं परश्वायुधहस्तकम् ।
मुद्गरेण विचित्रेण वर्तुलेन विराजितम् ॥
सिंहचर्मपरीधानं गजचर्मोत्तरीयकम् ।
अष्टादशभुजं देवं नीलकण्ठं सुतेजसम् ॥
अपनी अठारह भुजाओं में स्वच्छन्देश खड्ग, खेटक, पाश, अंकुश, बाण, धनुष, वरमुद्रा, अभयमुद्रा, मुण्ड, खट्वांग, वीणा, डमरू, त्रिशूल, घण्टा, वज्र, दण्ड, परशु तथा मुद्गर धारण करते हैं।
ऊर्ध्ववक्त्रं महेशानि स्फटिकाभं विचिन्तयेत् ।
आपीतं पूर्ववक्त्रं तु नीलोत्पलदलप्रभम् ॥
दक्षिणं तु विजानीयाद् वामं चैव विचिन्तयेत् ।
दाडिमीकुसुमप्रख्यं कुङ्कुमोदकसन्निभम् ॥
चन्द्रार्बुदप्रतीकाशं पश्चिमं तु विचिन्तयेत् ।
स्वच्छन्दभैरवं देवं सर्वकामफलप्रदम् ॥
आकाशवक्त्र ईशान स्फटिक वर्ण का है वहीं पूर्ववक्त्र तत्पुरूष पीतवर्ण का है। दक्षिणमुख अघोर नीलकमल के समान वर्ण का है। उत्तरमुख वामदेव का वर्ण अनार के पुष्प तथा कुंकुम के समान रक्तिम है। पश्चिममुख अरबों चन्द्रमाओं के समान प्रभावाला श्वेत वर्ण का है।
भैरवं पूजयित्वा तु तस्योत्सङ्गे तु तां न्यसेत् ।
यादृशं भैरवं रूपं भैरव्यास्तादृगेव हि ॥
ईषत्करालवदनां गम्भीरविपुलस्वनाम् ।
प्रसन्नास्यां सदा ध्यायेद् भैरवाविस्मितेक्षणाम् ॥
इनके अंक में इन्हीं के समान प्रसन्न मुखाकृति वाली अघोरेशी (स्वच्छन्दभैरवी) विराजमान हैं। इस प्रकार इनका ध्यान करनें से साधक के संसाररूप भय का नाश हो जाता है।
शिव के पद छवि उर वास वसे पद कमल सदा नत भाल रहे।
तिहुं लोक के स्वामि सदाशिव नित इस दास पे नाथ कृपाल रहें।।
जिनके शुचि कण्ठ हलाहल है जिनके कर काल कराल रहे।
सोइ शम्भु सदा उर बासैं मोरे अरु माथ पे हाथ कृपाल रहे।
जिनके गल माल कपाल सदा अरु शोभित सर्प विशाल रहे।
सोइ शंकर हर अविनाशि सदा इस दास पे नाथ कृपाल रहें।।
शमशान के जिनको भान नहीं स्नान में भस्म गुलाल रहे।
उनके चरनन यहु दास सदा सिर हाथ सदा महाकाल रहे।।
सब भूत भभूत रमाय फिरैं भगतन के बाजत गाल रहे।
भस्मांग विभूषित योगेश्वर इस दास पे नाथ कृपाल रहें।।
हिमवान सुता संग लै विहरैं वृषराज की मोहक चाल रहे।
सोइ चन्द्र किरीट हरीश सदा इस दास पे नाथ कृपाल रहें।।
लख चौरासी शिव पद में रहूं नित मोरे मन यहु हाल रहे।
चरनन रज में मैं जाइ मिलूं शिवदास पे नाथ कृपाल रहें।।
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