इस ख़बर को शेयर करें:
4 अप्रेल 1979 की रात दो बजे.. पूर्व प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो फांसी के तख्ते पर खड़े थे। जेलर, घड़ी की सुइयों पर नजर टिकाए था। 2 बजकर 4 मिनट हुए, पांचवा मिनट शुरू हो चुका था।
जेलर ने इशारा किया। जल्लाद भुट्टो के करीब कान में जाकर कुछ फुसफुसाया, और फिर लीवर खींच दिया।
उनका शरीर जमीन से 5 फीट ऊपर झूल गए। तकरीबन आधे घण्टे बाद उसे उतारा गया। डॉक्टर ने नब्ज जांची।
मृत घोषित किया।
1961 में लाहौर शहर का रिडेवलपमेंट होना था। एक जेल जो बड़ी पुरानी थी, अब शहर के बीच हो गयी थी। सरकार बहादुर ने तय किया कि जेल को गिरा दिया जाएगा।
खूब सारे प्लॉट निकाले जायेंगे। एक बड़ी कालोनी बनेगी- खुशनुमा कालोनी।
खुशनुमा याने हिंदी में प्रसन्नचित्त, अंग्रेजी में हैप्पी।
याने उर्दू में कहें, तो “शादमान”
तो जेल ढहाकर शादमान कालोनी बनाई गई। इस जेल की एक खासियत बड़ी मशहूर थी।
इस जेल में भगतसिंह को फांसी हुई थी।
बहरहाल, जेल ढह गई। कालोनी बनी। जिस जगह भगतसिंह ने अंतिम सांस ली थी, फांसी का वो तख्ता जहां था, उस जगह कालोनी का चौराहा बना।
ठीक तख्ते की जगह पर बनाया गया, एक गोल चक्कर। उसे शादमान चौक कहते थे। इस शादमान चौक पर एक मर्डर हुआ।
एक कार को एम्बुश कर, गोलियाँ चलाई गई। बचने की हर कोशिश बेकार हुई। शिकार की लाश गोल चक्कर पर गिरी।
जुल्फिकार अली भुट्टो प्रधानमंत्री थे। संसद में भाषण देने को खड़े हुए तो एक सदस्य उन्हें रोककर चिल्लाने लगा। एक छोटी बोतल निकाली जिसमे खून भरा था। और साथ मे लहराई एक खून से सनी कमीज।
माननीय सदस्य का आरोप था कि पिछले दिनों शादमान चौक पर उसके बाप की जो लाश गिरी थी, उस मर्डर के पीछे स्वयं प्रधानमंत्री भुट्टो का हाथ था।
20 नवम्बर 1974 को संसद में यह सनसनीखेज आरोप लगाने के बाद अहमद रजा कसूरी रुके नहीं। उन्होंने FIR भी दर्ज करवाई।
मकतूल, याने मोहम्मद अहमद कसूरी की हत्या की साजिश के लिए, उसके बेटे की तहरीर पर लाहौर पुलिस ने प्राथमिकी दर्ज की।
लेकिन भला पीएम के विरुद्ध जांच कौन करता है। FIR धूल खाती रही।
जुल्फिकार, पाकिस्तान में डेमोक्रिटिकली चुने गए सर्वशक्तिमान प्रधानमंत्री थे। अकेला ऐसा शख्स जो आर्मी के कन्ट्रोल में न था, बल्कि आर्मी का बॉस था।
और कन्ट्रोल बनाये रखने के लिए, सेनापति के पद पर, अपना आदमी पड़ता है। तो जब नया सेनाध्यक्ष चुनना था, उन्होंने सीनियरिटी क्रम में सातवें, लेकिन चमचागिरी में पहली रैंक के अफसर को चुना।
उसका नाम जिया उल हक था।
ये चॉइस थोड़ी गलत कर दी जुल्फ़ी ने। क्योकि 13 माह बाद ही जिया उल हक ने जुल्फिकार का तख्ता पलट दिया। मार्शल ला लगा दिया और। जिया को करप्शन के इल्जाम में जेल में ठूंस दिया।
जुल्फिकार की पॉपुलरिटी तगड़ी थी। उनके जिंदा रहते, जिया की सत्ता खतरे में थी। राह का कांटा निकालने के लिए बहाना चाहिए था।
बहाना मिला, वो धूल खाती FIR।
यह कोई नही जानता कि आरोप में सचाई कितनी थी। लेकिन चटपट जांच आगे बढ़ाई गई। और फिर पूर्व प्रधानमंत्री को दोषी पाकर सजा ए मौत दी गयी।
4 अप्रैल 1979 को सुबह 2 बजकर 5 मिनट पर जेलर ने इशारा किया। जल्लाद ने लीवर खींच दिया। जुल्फिकार का शरीर जमीन से 5 फीट ऊपर झूल गया।
जिनके मर्डर के इल्जाम में फांसी हुई, जिनकी लाश शादमान चौक के गोल चक्कर पर गिरी थी, वो मोहम्मद अहमद कसूरी एक समय ब्रिटिश गर्वमेन्ट के अफसर हुआ करते थे।
भगत सिंह के डैथ वारंट पर दस्तखत, उसी कसूरी के थे।
यह तो विचित्र संयोग है, दुनिया संयोगों से भरी हुई है, शायद कोई गणित हमेशा ही काम कर रहा है, इसी को कर्म फल कहते हैं, कुछ पता चल जाते हैं बाकी नहीं पता चल पाते, इसलिए अपने कर्म अच्छे रखने चाहिए क्योंकि पता नहीं कैसे लौट कर आएगा।
आगे की जानकारी और धमाकेदार है । इन्हीं कसूरी साहब के बेटे थे खुर्शीद अहमद कसूरी जो मुशर्रफ साहब के सदर रहते हुए वजीर ए खर्जा थे , यानी यह उस सरकार में वजीर थे जिसने जुल्फिकार भुट्टो की सह्बजादी को मरवाया।