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हिंदुस्तान का इतिहास रहा है कि जब-जब प्रजा अप्रसन्न हुई, बड़े से बड़े साम्राज्य का पतन हो गया। 300 ई. पूर्व से चले आ रहे साम्राज्य 150-200 वर्षों में खत्म होते गए, कुछ तो 30-40 वर्ष भी नहीं टिक पाए। गुलाम, खिलजी, तुगलक, सैयद, लोदी कोई नहीं टिक पाए। इनके ना टिक पाने का मूल कारण इनकी अनुचित नीतियां थीं।
1526 से मुगल साम्राज्य ने जड़ें जमाई और औरंगज़ेब की अनुचित नीतियों ने प्रजा के असंतोष को चरम सीमा पर पहुंचा दिया और 1707 के बाद ये विशाल साम्राज्य भी खण्ड-खण्ड हो गया। ना अनुचित धार्मिक और राजनैतिक नीतियों वाले साम्राज्य टिक पाए और ना ही चौथ वसूली वाले साम्राज्य।
हम जानते हैं कि आज के समय में भी कई लोग राजपूत राजवंशों का सम्मान करते हैं, लेकिन अपवाद सर्वत्र हैं और कई लोग जातिगत द्वैष के कारण राजपूतों के इतिहास का सम्मान नहीं करते। 7वीं से 12वीं सदी का काल राजपूत काल कहा जाता है। इसके अलावा मेवाड़ राजवंश ने लगभग 1400 वर्षों तक मेवाड़ पर शासन किया। लगभग 700 वर्षों तक मारवाड़ के राठौड़ राजवंश ने शासन किया। इसी तरह जयपुर, बूंदी, कोटा, जैसलमेर, करौली जैसे राजवंशों ने सदियों तक शासन किया।
इस दौरान अनेक आक्रमण हुए। राजपूतों से जितना सम्भव हो सका उतने बलिदान दिए। जहां प्रजा पर अत्याचारों की बात आई, तब राजाओं ने सन्धियाँ करके अपनी प्रजा को बचाया। ये सत्य है कि राजपूताने के अंतिम 200 वर्ष उतने गौरवशाली नहीं रहे, जितने पहले थे और हमारे पाठ्यक्रम में इन्हीं 200 वर्षों का इतिहास अधिक बताया जाता है।
एकीकरण के समय राजपूतों की अनेक रियासतों ने मिलकर भारत का निर्माण किया। इसमें कुछ रियासतों को छोड़कर शेष सभी ने स्वैच्छिक रूप से योगदान दिया। यदि प्रजा पर अत्याचार होते, प्रजा त्रस्त होती, तो इन राजवंशों का शासन भी 100-150 वर्षों में समाप्त हो जाता, परन्तु ऐसा हुआ नहीं।
चित्तौड़गढ़ दुर्ग में स्थित आमेट के रावत पत्ताजी चुण्डावत की हवेली, जिसमें उन्हीं की आंखों के सामने उनकी माता सज्जन कंवर, 9 रानियों, 5 पुत्रियों व 2 छोटे पुत्रों ने जौहर किया। इस स्थान पर होने वाला जौहर 300 से अधिक राजपूतानियों के बलिदान का साक्षी बना और अब तक यह महल काला है। इस महल के भीतर की एक छत भी गिर गई थी। पत्ताजी ने इसका प्रतिशोध कुछ इस क़दर लिया कि अबुल फ़ज़ल ने भी उनको “किले में सबसे आख़िर में मारा जाने वाला राजपूत” होना लिखा है।
ख़ुद अकबर ने 9 मार्च 1568 ई. को जारी किए गए फ़तहनामे में रावत पत्ताजी की तुलना एक हजार घुड़सवारों से की और इनकी गजारूढ़ प्रतिमा बनवाई। इस फतहनामे में मुगल लेखक ने लिखा कि “जिस जगह रावत पत्ता लड़ रहा था, वहां सैंकड़ों लाशें बिछी हुई थीं, जिससे हमें मालूम पड़ा कि जरूर ये किले का कोई खास लड़ाका है। काफी देर तक वो बहादुर नहीं मारा गया, तब बादशाह के हुक्म से एक पागल हाथी को उसकी तरफ छोड़ा गया। जान जाने से पहले वो बादशाह से कुछ कहने वाला था, पर कह नहीं सका”।

मेवाड़ के बहादुर भीलों के बिना इतिहास अधूरा है। यदि कोई व्यक्ति भीलों के घर तक चला जाता था, तो चाहे वह भीलों का शत्रु ही क्यों न हो, भील घर आए व्यक्ति को नुकसान नहीं पहुंचाते थे। एक बार राव रणमल राठौड़ मेवाड़ के महाराणा मोकल की हत्या का बदला लेने के लिए भीलों के पास मदद लेने पहुंचे। वहां के भील और रणमल जी के बीच पुरानी शत्रुता थी, लेकिन जब रणमल जी उनके घर तक चले गए, तो भीलों ने शत्रुता भुलाकर उनकी सहायता की।

वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप की अब तक की ज्ञात सबसे पुरानी पेंटिंग, जो कि उनके प्रपौत्र महाराणा जगतसिंह (1628-1652) के शासनकाल में बनवाई गई। सोने के वर्क वाली सुनहरी पगड़ी, सफेद पारदर्शी जामा, कमर पर गेरुआ कमरबंधा, खपवा और हाथ में शत्रुओं की छाती भेदने वाला भाला।
कुम्भलगढ़ के अन्य नाम :- 1448 ई. में गोड़वाड़ में लिखे गए एक जैन लेख में इस दुर्ग का नाम कुम्भपुर बताया है। प्रारम्भ में इसका नाम माहोर था। मुगल तवारीखों में इसका नाम कुम्भलमेर लिखा है। मासिर-ए-मोहम्मदशाही में इसका नाम मछिन्दरपुर लिखा है। प्रशस्तियों में इसका नाम कुम्भलमेरु भी लिखा है। कुम्भलगढ़ का एक हिस्सा कटारगढ़ कहलाता है, जो ऊंचाई पर होने के कारण ‘मेवाड़ की आंख’ भी कहलाता है।