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मॉन्ट्रियाल प्रोटोकॉल क्या है, जलवायु परिवर्तन से जुड़े अहम समझौते कौन से हैं?

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पिछले कुछ दशकों से दुनियाभर की सरकारें ग्लोबल वॉर्मिंग को कम करने के लिए कदम उठाने की बात कह रही हैं। हालांकि, अनेक समझौतों और मंचों के बावजूद दुनिया जलवायु परिवर्तन को रोकने में सफल होती नजर नहीं आ रही है। वातावरण में लगातार जहरीली गैसें फैल रही हैं और इसका असर अब नजर आने लगा है। आइये एक नजर डालते हैं कि इस दिशा में कौन से समझौते हुए हैं और उनका नतीजा क्या रहा है।

लगातार बढ़ती जा रही है समस्या
क्योटो प्रोटोकॉल और पेरिस समझौते के तहत दुनियाभर के देश ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम करने पर सहमत हुए थे, लेकिन वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड लगातार बढ़ रही है। इससे धरती का तापमान चिंताजनक गति से बढ़ा है। वैज्ञानिकों का कहना है कि अगर इस मोर्चे पर काम नहीं किया जाता है तो यह पूरी दुनिया के लिए बेहद खतरनाक हो सकता है और बाढ़, सूखे और प्रजातियों के विलुप्त होने के तौर पर इसका खामियाजा भुगतना होगा।

मॉन्ट्रियाल प्रोटोकॉल ऐतिहासिक माना जाता है
1987 का मॉन्ट्रियाल प्रोटोकॉल जलवायु परिवर्तन के लिए नहीं था, लेकिन इसे कई मायनों में ऐतिहासिक माना जाता है। पर्यावरण से जुड़ा यह समझौता इस मामले में भविष्य के समझौतों का आधार बना था। इसके तहत दुनिया को उन पदार्थों का उत्पादन रोकने को कहा गया था, जिससे ओजोन परत को नुकसान पहुंचता है। यह कामयाब भी रहा और इसके बाद ओजोन को नुकसान पहुंचाने वाले उत्पादों का इस्तेमाल कम हुआ। इसमें कई बार संशोधन भी हो चुका है।

UN फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (UNFCCC)
1992 के UN फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (UNFCCC) को 197 देशों ने मंजूर किया था। यह पहली वैश्विक संधि थी, जिसमें सीधे तौर पर जलवायु परिवर्तन को ध्यान में रखकर तैयार किया गया था। इसमें ही सालाना फोरम कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टी (COP) की स्थापना की गई थी। अब यह फोरम हर साल मिलकर ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने पर विचार करती है। COP की बैठकों में क्योटो प्रोटोकॉल और पेरिस समझौता हुआ था।

क्योटो प्रोटोकॉल
क्योटो प्रोटोकॉल की रूपरेखा 1997 में तैयार हुई थी और इसे 2005 से लागू किया गया था। यह दुनिया की पहली कानूनी रूप से बाध्य पर्यावरण संधि थी। इसके तहत विकसित देशों को उत्सर्जन कम करने पर बाध्य किया गया था और इस पर नजर रखने के लिए एक व्यवस्था बनाई गई थी। हालांकि, इसमें विकासशील देशों पर कोई पाबंदी नहीं लगाई गई थी। अमेरिका ने इस पर हस्ताक्षर किए थे, लेकिन इसे कभी मंजूर नहीं किया। 2015 के पेरिस समझौते को आज तक की सबसे महत्वपूर्ण पर्यावरण संधि मानी जाती है। इसके तहत सभी देशों को उत्सर्जन कम करने को कहा गया था। इसी समझौते में वैश्विक तापमान को 2 डिग्री बढ़ने से रोकने और इसे 1.5 डिग्री तक सीमित रखने का लक्ष्य तय किया गया था। इसके अलावा इसमें वैश्विक नेट-जीरो उत्सर्जन का लक्ष्य रखा गया था। इसके तहत पर्यावरण में जितनी जहरीली गैसें छोड़ी जाएंगी, उतनी पेड़ और तकनीक से सोख ली जाएगी।

पेरिस समझौते से बाहर होकर फिर अंदर आया अमेरिका
पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपने कार्यकाल में अमेरिका को इस समझौते से बाहर कर लिया था। हालांकि, 2020 में नए राष्ट्रपति जो बाइडन ने अमेरिका को फिर से इस समझौते में शामिल किया। लिबिया और ईरान जैसे देश भी इस समझौते से बाहर हैं।

कौन से देश जिम्मेदार?
विकासशील देशों का कहना है कि विकसित देशों ने ज्यादा ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन किया है और अब उन्हें ही इसकी ज्यादा भरपाई करनी चाहिए। वहीं आंकड़ों की बात करें तो सबसे ज्यादा अमेरिका ने ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन किया है। उसके बाद यूरोपीय संघ का नंबर आता है। अब अमेरिका के साथ भारत और चीन दुनिया के सबसे बड़े कार्बन उत्सर्जकों की सूची में शामिल हो गए हैं। अन्य देशों में रूस, जापान और ब्राजील आदि शामिल हैं।

जलवायु परिवर्तन के लिए क्या है पेरिस समझौता ?
अधिकतर विशेषज्ञों का कहना है कि पेरिस समझौते के तहत उठाए गए कदम काफी नहीं है। इसके तहत देशों ने जो लक्ष्य तय किए हैं, वो महत्वकांक्षी नहीं हैं और उनमें उतनी तेजी नहीं दिखाई जाएगी, जिससे धरती का तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस तक न बढ़ सके। पिछले साल के अंत तक जो नीतियां थी, उनके अनुमान से 2100 तक दुनिया का तापमान 2.7 डिग्री सेल्सियस बढ़ जाएगा। विशेषज्ञों ने पेरिस समझौते को पहला कदम करार दिया है।

ये हैं बड़े उत्सर्जकों के लक्ष्य
2015 के बाद से दर्जनों देशों ने कार्बन उत्सर्जन कम करने की बात कही है। अमेरिका ने 2021 में कहा था कि वह 2030 तक 2005 के स्तर की तुलना में उत्सर्जन को 50-55 प्रतिशत कम कर देगा। इसी तरह यूरोपीय संघ ने 2030 तक कार्बन उत्सर्जन के स्तर को 1990 की तुलना में 55 प्रतिशत तक कम करने की बात कही है। चीन ने भी 2030 से पहले कार्बन उत्सर्जन के चरम पर पहुंचने का लक्ष्य रखा है। अगर ये लक्ष्य हासिल कर लिए जाते हैं, तब भी 2100 तक वैश्विक तापमान में 2.1 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी होगी। वहीं अगर 100 से अधिक देश नेट-जीरो उत्सर्जन को हासिल कर लेते हैं तो तापमान को 1.8 डिग्री बढ़ोतरी पर रोका जा सकता है।

जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणाम दिखने लगे हैं
इंसानी गतिविधियों के कारण धरती गर्म (ग्लोबल वॉर्मिंग) हो रही है, जिससे जलवायु परिवर्तन हो रहा है। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, औद्योगिक क्रांति के बाद से वैश्विक तापमान 1.1 डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है और अगर यह 1.5 डिग्री से अधिक जाता है तो जलवायु परिवर्तन को रोकना असंभव हो जाएगा और मानवता का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। हालिया समय में भयंकर गर्मी, ठंड, बाढ़, तूफान और सूखों जैसे जलवायु परिवर्तन के विनाशकारी दुष्प्रभाव देखने को भी मिले हैं।

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