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हे पार्थ! जो अपनी आत्मा के दर्शन कर लेता है, वह परमात्मा के दर्शन कर लेता है

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श्री कृष्ण जी ने अर्जुन से कहा… हे पार्थ जो अपनी आत्मा के दर्शन कर लेता है. वह परमात्मा के दर्शन कर लेता है.
जैसे नमक के एक कण् का स्वाद. समुद्र सागर के स्वाद से. भिन्न नहीं होता वैसे ही अपनी आत्मा के दर्शन परमात्मा के दर्शन से भिन्न नहीं होते. आत्मा ही पूर्ण परमात्मा है. परमात्मा का अंश है… … …. .
श्री अर्जुन जी ने श्री कृष्ण भगवान जी से कहा… हे माधव क्या आप ही परमात्मा है ।
श्री कृष्ण भगवान जी ने अर्जुन से कहा… हां पार्थ. मैं ही परमात्मा हूं. जैसे तुम भी परमात्मा हो. केवल तुम अभी जागृत नहीं हुए हो. और मैंने यह जान लिया है.
श्री अर्जुन जी ने. श्री कृष्ण भगवान जी से कहा. हे केशव. आपके प्रति समर्पण. ईश्वर के प्रति समर्पण क्यों नहीं हो सकता।
श्री कृष्ण भगवान जी ने. अर्जुन से कहा. . . अवश्य पार्थ. मेरे प्रति समर्पण ही. परमात्मा के प्रति समर्पण है।
सारे जगत का त्याग करके मेरी शरण में आ जाओ पार्थ मैं ही संसार हूं, मैं ही संसार का प्रत्येक कण हूं, मैं ही सूर्य हूं, और मैं ही चंद्र हूं, मैं ही नक्षत्र हूं, और मैं ही सभी ग्रह हूं, मैं सूर्य से भी अधिक पुरातन हूं, और किसी वृक्ष पर खिली कली से भी नया हूं, मैं हीं सारे मनुष्य हूं, मैं ही स्वर्ग और नर्क को धारण करने वाली शक्ति हूं, मैं ही दुर्योधन हूं, और मैं ही अर्जुन भी हूं।
अर्जुन जी ने श्री कृष्ण भगवान जी से कहा हे केशव यह कैसे संभव है, आपका जीवन काल बहुत से लोगों ने देखा है। आपकी माता अभी जीवित है. जिनके गर्भ से आप ने जन्म लिया है. आप पुरातन और अविनाशी कैसे हो सकते हैं. … … …
श्री कृष्ण भगवान जी ने. अर्जुन से कहा… तुम शरीर देख रहे हो. और मैं आत्मा की बात कर रहा हू पार्थ.
मेरे अनेक जन्म हुए हैं. मैंने अनेको अवतार धारण किए. कई शरीर बने है मेरे. और इसी मिट्टी में मिले हैं. और आगे भी. बार-बार जन्म लूंगा.

जब-जब धर्म की हानि होती है. जब जब. अधर्म में वृद्धि होती है. तब-तब. सत पुरुषों के उद्धार के लिए. अधर्मयों के विनाश के लिए. और धर्म की पुण: स्थापना के लिए. मैं ही जन्म लेता हूं. प्रत्येक युग में ऐसा होता आया है. और आगे भी ऐसा ही होगा.
मैं ही अविनाशी परमात्मा हूं. मैं हीं मत्स्य अवतार और मैं ही वामन अवतार हूं. मैं ही परशुराम हूं. और मैं ही रामचंद्र भी था. मैं ही. ब्रह्मा. विष्णु. महेश हूं और मैं ही सरस्वती. काली. और लक्ष्मी हूं.
मैं ना शरीर हूं. और ना ही शरीर के अंग. मैं ज्ञान सृष्टि. चैतन्य और परब्रह्म हूं. मैं सब कुछ हूं पार्थ. सब कुछ. और मैं कुछ भी नहीं हूं पार्थ. ऐसा प्रत्येक युग में हुआ है. और आगे भी ऐसा ही होता रहेगा.
मैं कुछ भी नहीं हूं पार्थ. और मैं सब कुछ हु. सब कुछ. ऐसा प्रत्येक युग में हुआ है. और आगे भी होता रहेगा.
जब तुम आत्मज्ञान प्राप्त करोगे पार्थ. तब तुम स्वयंम को. मुझसे ही जुड़ा पाओगे. तब तुम भी. मेरी भांति स्वयं को. परमात्मा के रूप में देखोगे. किंतु उस पद को प्राप्त करने हेतु. मेरे प्रति संपूर्ण समर्पन अनिवार्य है. … … …
अर्जुन जी ने. श्री कृष्ण भगवान जी से कहा… … … समर्पण क्या है. मैं उसे आप के प्रति समर्पण कैसे जान पाऊंगा माधव. … … …
श्री कृष्ण भगवान जी ने. अर्जुन से कहा. . . हे पार्थ समर्पण मन की. ऐसी स्थिति का नाम है. जब मनुष्य अपने. सारे संकल्पों का त्याग कर देता है. स्वयं से. किसी प्रकार के निर्णय. अथवा प्रण भी नहीं लेता. जिस प्रकार के उसे कार्य दिए जाते हैं. उसी प्रकार के कार्य करता है.
वास्तव में. समर्पण का अर्थ होता है. अपने आप को. अपने मन को. बुद्धि को. ज्ञान को. इच्छा को. आशा को. अपनी भावनाओं को. अपना सब कुछ. किसी को अर्पण कर देना और ऐसी समर्पण को. भक्ति कहते हैं पार्थ. … … …
श्री अर्जुन जी ने. श्री कृष्ण भगवान जी से. कहा. … हे केशव. मैं पूर्ण रूप से. समझ नहीं पाया हूं. पत्नी का. समर्पण पति को. योद्धा का समर्पण सेनापति को. और एक शिष्य के हृदय में. गुरु की भक्ति होती है. तो क्या सारी भक्तिया एक समान हैं. क्या सब को ईश्वर की प्राप्ति होती है. … … … .
श्री कृष्ण भगवान जी ने. अर्जुन से कहा. . नहीं पार्थ. मनुष्य जिसके प्रति समर्पित होता है. उसी के रूप में ढलने लगता है. उसके मन में. कोई संदेह. कोई प्रश्न. जन्म ही नहीं लेता.
किसी दुष्ट के प्रति समर्पण. उस मनुष्य के. कार्यों को भी. दूषित कर देता है. अंगराज कर्ण ने. धर्म को जानते हुए भी. बीच सभा में. पांचाली को अपशब्द कहे. उसका कारण था. भ्राता दुर्योधन के प्रति समर्पण.
इस युद्ध में. जो उन्हें दंड मिलेगा. वह किसी धर्म या जाति के लिए नहीं. अथवा एक दुष्ट के प्रति समर्पण के लिए दंड मिलेगा.
इसलिए. हे धनंजय. समर्पण उत्तम के प्रति होना आवश्यक है. उसी से मनुष्य उत्तम बनता है.
लोहे की माला से. अपराधी बांधा जाता है. पीतल की माला से. मंदिर का दीपक बांधा जाता है. और सोने की माला को आभूषण बनाकर. गले में धारण किया जाता है.
पति भक्ति. स्वामी भक्ति. मित्र भक्ति. ऐसी अनेक भक्तिया. होती है पार्थ. किंतु सबसे सर्वश्रेष्ठ परमात्मा की ही. भक्ति होती है. … … …
श्री अर्जुन जी ने. श्री कृष्ण भगवान जी से. कहा… हे केशव आप की भक्ति से. सांख्य योग और कर्म योग का क्या संबंध है. … … …
श्री कृष्ण जी ने अर्जुन जी से कहां.. . हे पार्थ सांख्य योग से मनुष्य स्वयं को आत्मा के रूप में जानता है. और कर्म योग से वह. जीवन के बंधनों से छूट जाता है और भक्ति से. परमात्मा के. वास्तविक रूप का ज्ञान होता है, और परमात्मा के ज्ञान से मनुष्य जन्म मरण के फेरो से छूटकर सच्चिदानंद रूप को प्राप्त कर लेता है. परमात्मा में समाकर स्वयं परमात्मा हो जाता है.
जैसे जल की छोटी सी बूंद. जब सागर में मिलती है. तो. स्वयं. सागर बन जाती है.
श्री अर्जुन जी ने. श्री कृष्ण भगवान जी से कहा. अथवा इस शरीर का. कोई महत्व नहीं है माधव. … … …

श्री कृष्ण जी ने अर्जुन से कहा अवश्य महत्व है पार्थ शरीर के माध्यम से ही परमात्मा का साक्षात्कार होता है. मृत्यु और नए जन्म के बीच के समय में आत्मा के ज्ञान में वृद्धि नहीं हो पाती इस जन्म में प्राप्त अनुभव ज्ञान कर्म और अभ्यास को लेकर. आत्मा नया शरीर धारण करती है, आत्मा की प्रगति और अनु गति शरीर में रहकर ही संभव है।

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