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संत एवं भक्त तुलसीदासकृत रामचरितमानस के उत्तरकांड में एक अद्भुत प्रसंग वर्णित है। शिवजी पूरी रामकथा माता पार्वती को सुनाकर कहते हैं –

उमा कहिउं सब कथा सुहाई। जो भुसुंडि खगपतिहि सुनाई ।।

हे उमा ! मैंने वह सब सुंदर कथा कही, जो कागभुशुण्डि जी ने गरूड़ जी को सुनाई थी। यह सुनकर पार्वती जी कहती हैं –

गरुड़ महाग्यानी गुन रासी। हरि सेवक अति निकट निवासी।।
तेहिं केहि हेतु काग सन जाई । सुनी कथा मुनि निकर बिहाई।।

गरुड़जी तो महान ज्ञानी , सद्गुणों की राशि , श्रीहरि के सेवक और उनके अत्यंत निकट रहने वाले (उनके वाहन ही) हैं । उन्होंने मुनियों के समूह को छोड़कर कौवे से जाकर हरि कथा किस कारण सुनी ?
शिव जी कहते हैं – अब वह कथा सुनो , जिस कारण से पक्षीकुल के ध्वजा गरुड़ जी उस काक के पास गए थे। जब श्रीरघुनाथ जी ने लंका-युद्ध में ऐसी रणलीला की कि वे मेघनाद के हाथों अपने को बंधा लिया, तब नारद मुनि ने गरुड़ जी को भेजा। सर्पों के रक्षक गरुड़ जी बंधन काटकर लौटने लगे, तब उनके हृदय में बड़ा भारी संशय हुआ।

भव बंधन ते छूटहिं नर जपि जा कर नाम। खर्ब निसाचर बांधेउ नागपास सोइ राम।।

जिनका नाम जपकर मनुष्य संसार के बंधन से छूट जाते हैं, उन्हीं राम को एक तुच्छ राक्षस ने नागपाश से बांध लिया। गरुड़ जी सोचने लगे कि यदि मैं नागपाश नहीं काटा होता, तो प्रभु श्रीराम नागपाश के बंधन से छूट ही नहीं पाते! गरुड़ जी को अपनी श्रेष्ठता का अभिमान हुआ।

ब्याकुल गयउ देवरिषि पाहीं। कहेसि जो संसय निज मन माहीं।।

व्याकुल होकर वे देवर्षि नारदजी के पास गए और मन में जो संदेह था , वह उनसे कहा। नारद जी ने गरुड़ जी को ब्रह्मा जी के पास भेज दिया। ब्रह्मा जी ने गरुड़ जी को शंकर जी के पास जाने के लिए कहा। शंकर जी रास्ते में ही मिल गए। शंकरजी कहते हैं –

मिलेहु गरुड़ मारग महं मोही। कवन भांति समझावौं तोही ।।
तबहिं होइ सब संसय भंगा । जब बहु काल करिअ सतसंगा ।।

हे गरुड़ जी! तुम मुझे रास्ते में मिले हो। राह चलते मैं तुम्हें किस प्रकार समझाऊं ? सब संदेहों का तो तभी नाश होगा, जब दीर्घकाल तक सत्संग किया जाए।

होइहि कीन्ह कबहुं अभिमाना। सो खोवै चह कृपानिधाना ।।

हे उमा! मैंने उसको इसलिए नहीं समझाया कि मैं श्री रघुनाथ जी की कृपा से उसका मर्म (भेद) जान गया था। उसने कभी अभिमान किया होगा , जिसको कृपानिधान श्रीराम जी नष्ट करना चाहते हैं।

कछु तेहि ते पुनि मैं नहिं राखा। समुझइ खग खगही कै भाषा ।।

फिर कुछ इस कारण भी मैंने उसको अपने पास नहीं रखा कि पक्षी की भाषा पक्षी ही समझते हैं। भक्तिमूलक महाकाव्य रामचरितमानस की पंक्तियों को समझने के लिए भी तुलसीदास जी जैसा भक्त होना आवश्यक है। भक्त ही भक्त के भाव को हृदयंगम कर सकता है अन्यथा भक्तिरहित व्यक्ति अर्थ का अनर्थ लगा लेंगे। ऐसा ही रामचरितमानस की कुछ पंक्तियों के साथ हो रहा है।

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