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गांव का जीवन हर मौसम मे सुहाना लगता है। सुबह सुबह आंख खुलते ही आंख मिचते हुए टोकरी लेकर महुए के पेड़ के नीचे ही जाना पड़ता था क्योंकि रात भर चुए महूए को जल्दी न बिना गया तो राहगीरों के पैरों के नीचे आकर महुआ कुचलकर खराब हो जाता था।
अच्छा! एक बात ये भी थी कि कुछ पेड़ रात भर टपकते थे तो वही कुछ महुये के पेड़ बड़ा सताते थे दोपहर तक टिप टिप गिरते रहते थे और हम बच्चे उन्हे इकठ्ठा करने के चक्कर में दोपहर तक महुआरी में ही लटके रहते थे।
ताजे महुआ का रस निकालकर बड़ी स्वादिष्ट लपसी बनती थी।
बाबा जी बताते थे कि उनकी माई ताजे महुआ के रस को निचोड़ लेती थी और फिर उबलने के लिए रख देती थी जब महुये का रस उबलने लगता था तब थोडा सा आटा महुआ के रस से गूंथ कर उस आटे से हाथ से सेंवई बना कर उबलते रस में डालती जाती थी और बहुत बढ़िया व्यंजन बनकर तैयार होता था। अब तो महुआ के पेड़ ही गिने चुने रह गए हैं। पुराने लोग चले गए और अपने साथ बहुत से व्यंजन ले गए अब तो मोमो बर्गर का समय है।