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भूले बिसरे : चलते-चलते यूं ही कोई मिल गया था

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साल था 1938 । 1924 में मुंबई आए संगीतकार गुलाम मोहम्मद एक रूसी निर्माता हैड्रिंग डार्जिल की कंपनी न्यू पिक्चर्स की फिल्म ‘सुनहरी मकड़ी’ में सौ रुपए महीने पर तबला वादक नियुक्त हुए । इस फिल्म के संगीतकार थे उस्ताद झंडे खान और नौशाद को उनका सहायक बनने का मौका मिला था।

तब तीन महीने में फिल्में और उनका संगीत तैयार हो जाता था। गुलाम मोहम्मद अकसर पैसा सूद पर देने वाले पठानों से उधार लेते थे। पठान 10 रुपए देकर महीने में 12 रुपए वसूलते थे। हर एक तारीख को पठान कंपनी में आ जाता था और कर्जदारों से उधार दिए पैसे छीन कर ले लेता था।

अनुबंध के आखिरी दिन नौशाद और गुलाम मोहम्मद को कंपनी ने चेक दे दिया। इधर पठान माथे पर आ कर खड़ा था। उसका कहना था कि पैसे तो उसे आज ही चाहिए। बैंक लगभग 12 किलोमीटर दूर बांद्रा में था। न नौशाद की जेब में फूटी कौड़ी थी, न गुलाम की जेब में। लिहाजा तय किया कि चेम्बूर से पैदल बांद्रा जाकर बैंक से पैसे लेकर पठान को दे दिए जाएं।

पठान साथ पैदल चलने के लिए तैयार हो गया कि कहीं गुलाम पैसे दिए बिना भाग न जाएं। पठान दोनों की परेशानी समझ रहा था, मगर एक तारीख को अपने पैसे वसूलने का उसूल छोड़ने के लिए तैयार नहीं था। पैदल चलने के कारण भूख लगी तो गुलाम ने पठान से कहा कि लाला अपने पैसे से खाना खिला दो और उन्हें भी उधारी में जोड़ लो। पठान को भी उनकी हालत देखकर रहम आ गया और उसने बांद्रा के एक रेस्तरां में गुलाम और नौशाद को भरपेट खाना खिलाया मगर खाने के ढाई रुपए उधारी में जोड़ना नहीं भूला।

17 मार्च 1968 को ग़ुलाम मोहम्मद का निधन हुआ था। जिस वक्त इनका निधन हुआ था उस वक्त ये पाकीज़ा फिल्म का संगीत तैयार कर रहे थे। इनकी मृत्यु के बाद नौशाद साहब ने पाकीज़ा का म्यूज़िक कंप्लीट किया। और ग़ुलाम मोहम्मद व नौशाद साहब, दोनों के कंपोज़ किए गए गीत हमें पाकीज़ा फिल्म में देखने-सुनने को मिलते हैं।

पाकीज़ा फिल्म का गीत ‘चलते-चलते यूं ही कोई मिल गया था सरेराह’ ग़ुलाम मोहम्मद जी ने ही कंपोज़ किया था। कहते हैं कि इस गीत को कंपोज़ करते वक्त ग़ुलाम मोहम्मद जी ने अपने सारंगी वादक राम नारायण जी से 21 दफा रीटेक कराए थे। ताकि वो इफेक्ट निकलकर आ सके जो वो चाहते थे। ग़ुलाम मोहम्मद जी अपने वक्त के बहुत रिस्पेक्टेड संगीतकार थे।

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