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भाई भरत को समझाकर श्रीराम जी ने उन्हें अयोध्या वापस जाने का आदेश देना

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श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण (अयोध्याकाण्ड–सर्ग-107)

आज की कथा में:– श्रीराम का भरत को समझाकर उन्हें अयोध्या जाने का आदेश देना। जब भरत पुन: इस प्रकार प्रार्थना करने लगे, तब कुटुम्बीजनों के बीच में सत्कार पूर्वक बैठे हुए लक्ष्मण के बड़े भाई श्रीमान् रामचन्द्रजी ने उन्हें इस प्रकार उत्तर दिया–

श्रीरामचन्द्रजी बोले–‘भाई! तुम नृपश्रेष्ठ महाराज दशरथ के द्वारा केकय-राजकन्या माता कैकेयी के गर्भ से उत्पन्न हुए हो; अत: तुमने जो ऐसे उत्तम वचन कहे हैं, वे सर्वथा तुम्हारे योग्य हैं। भैया! आज से बहुत पहले की बात है–पिताजी का जब तुम्हारी माताजी के साथ विवाह हुआ था, तभी उन्होंने तुम्हारे नाना से कैकेयी के पुत्र को राज्य देने की उत्तम शर्त कर ली थी।

इसके बाद देवासुर संग्राम में तुम्हारी माता ने प्रभावशाली महाराज की बड़ी सेवा की; इससे सन्तुष्ट होकर राजा ने उन्हें वरदान दिया। उसी की पूर्ति के लिये प्रतिज्ञा कराकर तुम्हारी श्रेष्ठ वर्ण वाली यशस्विनी माता ने उन नरश्रेष्ठ पिताजी से दो वर माँगे।

पुरुषसिंह! एक वर के द्वारा इन्होंने तुम्हारे लिये राज्य माँगा और दूसरे के द्वारा मेरा वनवास। इनसे इस प्रकार प्रेरित होकर राजा ने वे दोनों वर इन्हें दे दिये। पुरुषप्रवर! इस प्रकार उन पिताजी ने वरदान के रूप में मुझे चौदह वर्षों तक वनवास की आज्ञा दी है। यही कारण है कि मैं सीता और लक्ष्मण के साथ इस निर्जन वन में चला आया हूँ। यहाँ मेरा कोई प्रतिद्वन्द्वी नहीं है। मैं यहाँ पिताजी के सत्य की रक्षा में स्थित रहूँगा।

राजेन्द्र ! तुम भी उनकी आज्ञा मानकर शीघ्र ही राज्य पदपर अपना अभिषेक करा लो और पिता को सत्यवादी बनाओ–यही तुम्हारे लिये उचित है। धर्मज्ञ भरत! तुम मेरे लिये पूज्य पिता राजा दशरथ को कैकेयी के ऋण से मुक्त करो, उन्हें नरक में गिरने से बचाओ और माता का भी आनन्द बढ़ाओ।

तात! सुना जाता है कि बुद्धिमान्, यशस्वी राजा गय ने गय-देश में ही यज्ञ करते हुए पितरों के प्रति एक कहावत कही थी। वह इस प्रकार है–बेटा पुत्र नामक नरक से पिता का उद्धार करता है, इसलिये वह पुत्र कहा गया है। वही पुत्र हैं, जो पितरों की सब ओर से रक्षा करता है। बहुत-से गुणवान् और बहुश्रुत पुत्रों की इच्छा करनी चाहिये। सम्भव है कि प्राप्त हुए उन पुत्रों में से कोई एक भी गया की यात्रा करे ?

रघुनन्दन! नरश्रेष्ठ भरत! इस प्रकार सभी राजर्षियों ने पितरों के उद्धार का निश्चय किया है, अतः प्रभो! तुम भी अपने पिता का नरक से उद्धार करो। वीर भरत! तुम शत्रुघ्न तथा समस्त ब्राह्मणों को साथ लेकर अयोध्या को लौट जाओ और प्रजा को सुख दो। वीर! अब मैं भी लक्ष्मण और सीता के साथ शीघ्र ही दण्डकारण्य में प्रवेश करूँगा।

भरत! तुम स्वयं मनुष्यों के राजा बनो और मैं जंगली पशुओं का सम्राट् बनूँगा। अब तुम अत्यन्त हर्ष पूर्वक श्रेष्ठ नगर अयोध्या को जाओ और मैं भी प्रसन्नता पूर्वक दण्डकवन में प्रवेश करूँगा। भरत ! सूर्य की प्रभा को तिरोहित कर देने वाला छत्र तुम्हारे मस्तक पर शीतल छाया करे। अब मैं भी धीरे-धीरे इन जंगली वृक्षों की घनी छाया का आश्रय लूँगा।

भरत! अतुलित बुद्धि वाले शत्रुघ्न तुम्हारी सहायता में रहें और सुविख्यात सुमित्रा कुमार लक्ष्मण मेरे प्रधान मित्र (सहायक) हैं; हम चारों पुत्र अपने पिता राजा दशरथ के सत्य की रक्षा करें। तुम विषाद मत करो।’ इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदि काव्य के अयोध्या काण्ड में एक सौ सातवाँ सर्ग पूरा हुआ॥१०७॥

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