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जब श्रीरामचन्द्रजी की चरणधूलि से अहल्या हो गयी पवित्र

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मत्तेभकुम्भदलने भुव सन्ति शूराः केचित् प्रचण्डमृगराजवधेऽपि दक्षाः।
किन्तु ब्रवीमि बलिनां पुरतः प्रसह्य कन्दर्पदर्पदलने विरला मनुष्याः॥

(मतवाले हाथी के मद को चूर्ण करने वाले शूर पुरुष होते हैं। बहुत से बलवान् सिंह को भी पछाड़ने की शक्ति रखते हैं, किन्तु मैं बलवानों के सम्मुख हठ पूर्वक कहता हूँ कि कामदेव के मद को चूर्ण करने वाले होते तो हैं, किन्तु विरले ही होते हैं अर्थात् इसे वश में करना बहुत कठिन है।)

महर्षि गौतम सप्तर्षियों में एक ऋषि हैं। कहीं-कहीं पुराणों में ऐसी कथा मिलती है कि महर्षि अन्धतमा जन्म के अन्धे थे, उन पर स्वर्ग की कामधेनु प्रसन्न हो गयी और उस गौ ने इनका तप हर लिया। ये देखने लगे। तबसे इनका नाम गौतम पड़ गया। ये ब्रह्माजी की मानसी सृष्टि के हैं।

पुराणान्तरों में ऐसी कथा आती है कि सर्वप्रथम ब्रह्माजी की इच्छा एक स्त्री बनाने की हुई, उन्होंने सब जगह से सौन्दर्य इकट्ठा करके एक अभूतपूर्व स्त्री बनायी। उसके नख से सिख तक सर्वत्र सौन्दर्य-ही-सौन्दर्य भरा था। हल कहते हैं पाप को, हलका भाव हल्य और जिसमें पाप न हो उसका नाम अहल्या है; अतः उस निष्पापा का नाम भगवान् ब्रह्मा ने अहल्या रखा। यह पृथ्वी पर सर्वप्रथम इतनी सुन्दर मानुषी स्त्री हुई।

सब ऋषि, देवता उसकी इच्छा करने लगे। इन्द्र ने तो उसके लिये भगवान् ब्रह्मा से याचना भी की, किन्तु ब्रह्माजी ने उनकी प्रार्थना स्वीकार नहीं की। ऐसी त्रैलोक्यसुन्दरी ललना को भला कौन नहीं चाहेगा ? उन दिनों भगवान् गौतम बड़ी घोर तपस्या कर रहे थे। ब्रह्माजी उनके पास गये और जाकर बोले–‘यह अहल्या तुम्हें हम धरोहर के रूप में दिये जाते हैं, जब हमारी इच्छा होगी ले लेंगे।

ब्रह्माजी की आज्ञा ऋषि ने शिरोधार्य की। अहल्या ऋषि के आश्रम में रहने लगी। वह हर तरह से ऋषि की सेवा में तत्पर रहती और ऋषि भी उसका धरोहर की वस्तु की भाँति ध्यान रखते। किन्तु उनके मन में कभी किसी प्रकार का बुरा भाव नहीं आया।

हजारों वर्ष के बाद ऋषि स्वयं ही अहल्या को लेकर ब्रह्माजी के यहाँ गये और बोले–‘ब्रह्मन् ! आप अपनी यह धरोहर ले लें।’ ब्रह्माजी इनके इस प्रकार के संयम और पवित्र भाव को देखकर बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने अहल्या का विवाह इन्हीं के साथ कर दिया। ऋषि सुख पूर्वक इनके साथ रहने लगे। इनके एक पुत्र भी हुए जो महर्षि शतानन्द के नाम से विख्यात हैं और जो महाराज जनक के राजपुरोहित थे।

इन्द्र ने जब अहल्या के साथ अनुचित बर्ताव किया, न करने योग्य काम किया तब इसमें अहल्या की भी कुछ सम्मति समझकर गौतमजी ने उसे पाषाण होने का शाप दे दिया। तब ब्रह्माजी ने भी शाप दिया कि आज से केवल अहल्या में ही सम्पूर्ण सौन्दर्य न रहकर पृथ्वी भर की स्त्रीमात्र में बँट जायगा। उन्होंने इन्द्र को शाप दिया कि तुम्हारा पद स्थायी न रहेगा, इन्द्र सदा बदलते रहेंगे।

इस प्रकार ऋषि गौतम अपनी पत्नी को त्यागकर हिमवान् पर्वत पर तपस्या करने चले गये। जब श्रीरामचन्द्रजी की चरणधूलि से अहल्या पुनः पवित्र हो गयी तब गौतमजी ने उसे स्वीकार कर लिया। महर्षि गौतम का चरित्र अलौकिक है। इनके ऐसा त्याग, वैराग्य और तप कहाँ देखने को मिलेगा ?

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