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१५७६ में हल्दीघाटी युद्ध की अनिर्णीत समाप्ति के पश्चात चित्तौड़ महाराणा के हाथों से फिसल चुका था। मुगल सेना का मनोबल इस युद्ध के बाद बढ़ चुका था और धीरे धीरे कुम्भलगढ़, गोगुन्दा, उदयपुर जैसे मेवाड़ के बड़े ठिकाणों और अनेक छोटे ठिकाणों पर मुगलों और शाही सेनाओं का आधिपत्य हो चुका था।
महाराणा प्रताप ने हल्दीघाटी युद्ध के पश्चात अरावली के घने जंगलों में शरण ली। सुरक्षा की दृष्टि से महाराणा प्रताप ने अरावली के जंगलों में स्थित मानकियावास नाम के एक छोटे से गाँव में पड़ाव डाला। यहाँ जंगली बिलावों का अधिक भय था इसलिए इस गाँव का नाम ही मानकियावास पड़ गया। देवनगर, रूपनगर, आमेट जैसे ठिकाने भी मानकियावास के समीप थे जहाँ से महाराणा को सहायता मिलती रहती थी। इसी मानकिया वास की गुफा में दिवेर युद्ध की रणनीति बनी।
१५७८ में ईडर के पास जूलिया ग्राम में जब महाराणा का पड़ाव होता है तो उनके अभिन्न मित्र और मंत्री भामाशाह कावड़िया (वैश्य) अपने भाई ताराचंद कावड़िया के साथ महाराणा से मिलने आते हैं। भामाशाह के पूर्वज भी मेवाड़ में मंत्री और खजांची थे। जो मेवाड़ का खजाना भामाशाह के आधिपत्य में था भामाशाह वो खजाना महाराणा को भेंट कर देते हैं।
यह खजाना इतना होता है कि २५ हज़ार सैनिकों का १२ वर्ष तक भरण पोषण रशद हथियारों का खर्चा वहन किया जा सके। उधर मुगलों ने सोचा कि महाराणा धीरे धीरे अपने कदम मेवाड़ से पोछे हटा रहे हैं। महाराणा प्रताप के भय इस कदर था कि १५७६ से १५८२ तक अकबर ने करीब १.५ लाख सैनिकों को मेवाड़ महाराणा की गिरफ्तारी के लिए भेजा।
मानकियावास के घने जंगलों और गुफाओं में भामाशाह के सहयोग के पश्चात महाराणा युद्ध की तैयारियां करने लगे। सेना को एकत्रित किया। खुफिया सूचनाओं का आदान प्रदान होने लगा। हथियारों अस्त्रों शस्त्रों का निर्माण हुआ। सेना को कुशल प्रशिक्षण दिया जाने लगा। महाराणा ने स्वयं को युद्ध की हर स्थिति से निबटने के लिए शारीरिक मानसिक रूप से तैयार कर लिया।
दिवेर युद्ध की योजना बनी और तिथि तय हुई विजयादशमी १५८२। महाराणा को इस युद्ध मे सर्वप्रथम ईडर और सिरोही के शासकों का सहयोग मिला। तदोपरांत जालोर, नाडोल और बूंदी के शक्तिशाली शासक भी अकबर के विरुद्ध खुला विद्रोह करते हुए महाराणा के समर्थन में आ गए।
सेना को दो भागों में विभक्त किया गया। एक टुकड़ी का नेतृत्व स्वयं महाराणा के हाथों में था तो दूजी टुकड़ी की कमान महाराणा के पुत्र और मेवाड़ के युवराज कुंवर अमरसिंह के हाथों में सौंपी गई।
तय विजयदशमी १५८२ के दिन महाराणा ने पूरी शक्ति से दिवेर के ठिकाणे पे शाही सेना पे हमला किया। दिवेर की कमान अकबर ने अपने काका सुल्तान खान को सौंप रखी थी।
सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण दिवेर पे हजारों की संख्या में मुगलों की शाही सेना तैनात थी। वहीं महाराणा के पास शाही सेना के मुकाबले बहुत कम सैनिक थे। दिवेर का युद्ध इतना भयावह था जितना भयावह हल्दीघाटी का युद्ध था।
महाराणा के नेतृत्व में मुट्ठी भर राजपूत शाही सेना पे बिजली की गति से टूट पड़े और देखते ही देखते दिवेर में शाही सेना को गाजर मूली की तरह मेवाड़ी योद्धाओं ने चीरना शुरू कर दिया। अकबर का काका सुल्तान खान एक विशाल सेना के साथ मैदान छोड़ के भागने लगा। किन्तु मेवाड़ी सेना और महाराणा तथा उनके पुत्र अमरसिंह ने आमेट तक सुल्तान खान का पीछा किया और सेनाओं सहित उसे मौत के घाट उतार दिया।
यह युद्ध इतना भीषण था कि महाराणा प्रताप के पुत्र अमर सिंह ने मुगल सेनापति सुल्तान खान पर भाले का ऐसा वार किया कि भाला उसके शरीर और घोड़े को चीरता हुआ जमीन में जा धंसा और सेनापति मूर्ति की तरह एक जगह गड़ गया। उधर महाराणा प्रताप ने बहलोल खान के सिर पर इतनी ताकत से वार किया कि उसे घोड़े समेत दो टुकड़ों में चिर दिया।
स्थानीय इतिहासकार बताते हैं कि इस युद्ध के बाद यह कहावत बनी कि मेवाड़ के योद्धा सवार को एक ही वार में घोड़े समेत चिर दिया करते हैं। अपने सिपाहसालारों की यह गत देखकर मुगल सेना में बुरी तरह भगदड़ मची और राजपूत सेना ने मुगलों के होश पख्ता कर दिए।
दिवेर के युद्ध ने मुगलों के मनोबल को बुरी तरह तोड़ दिया। दिवेर के युद्ध के बाद प्रताप ने उदयपुर, गोगुंदा, कुम्भलगढ़, बस्सी, चावंड, जावर, मदारिया, मोही और माण्डलगढ़ जैसे महत्वपूर्ण ३२ ठिकानों पर पुनः कब्ज़ा कर लिया।
स्थानीय इतिहासकार बताते हैं कि इसके बाद भी महाराणा और उनकी सेना ने अपना अभियान जारी रखते हुए सिर्फ चित्तौड़ को छोड़ के मेवाड़ के अधिकतर क्षेत्र/दुर्ग वापस स्वतंत्र करा लिए।
अंगेजी इतिहासकारों ने लिखा है कि हल्दीघाटी युद्ध का दूसरा भाग जिसको उन्होंने बैटल ऑफ दिवेर कहा है वह मुगल बादशाह के लिए एक करारी हार सिद्ध हुआ था। कर्नल टॉड ने भी अपनी किताब में जहाँ हल्दीघाटी को थर्मोपल्ली ऑफ मेवाड़ की संज्ञा दी।
वहीं दिवेर के युद्ध को मेवाड़ का मैराथन बताया है। (मैराथन का युद्ध 490 ई.पू. मैराथन नामक स्थान पर यूनान केमिल्टियाड्स एवं फारस के डेरियस के मध्य हुआ था जिसमें यूनान की विजय हुई थी। इस युद्ध में यूनान ने अद्वितीय वीरता दिखाई थी)
कर्नल टॉड ने महाराणा और उनकी सेना के शौर्य पराक्रम युद्ध कुशलता को स्पार्टा के योद्धाओं सा वीर बताते हुए लिखा है कि वे युद्धभूमि में अपने से चार गुना बड़ी सेना से भी नहीं डरते थे। लेकिन अफसोस वामपंथी इतिहासकारों ने दिवेर के निर्णायक युद्ध और महाराणा प्रताप के शौर्य साहस और भीम-पराक्रम को इतिहास में वो स्थान नहीं दिया जिसके वो अधिकारी थे। वहीं राजस्थान के वर्तमान कांग्रेसी शिक्षामंत्री लोगों से सुझाव माँग रहे हैं कि अकबर महान या महाराणा महान ?