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कहानी: दान

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एक भिखारी सुबह-सुबह भीख मांगने निकला। चलते समय उसने अपनी झोली में जौ के मुट्ठी भर दाने डाल लिए। टोटके या अंधविश्वास के कारण भिक्षा मांगने के लिए निकलते समय भिखारी अपनी झोली खाली नहीं रखते। उसमें कुछ न कुछ जरूर रख लेते हैं।

पूर्णिमा का दिन था। उस दिन लोग दान करते हैं। इसलिए भिखारी को विश्वास था कि आज ईश्वर की कृपा होगी और झोली शाम से पहले ही भर जाएगी।

वह एक जगह खड़ा होकर भीख मांग रहा था। तभी उसे सामने से उस देश के नगरसेठ की सवारी आती दिखाई दी।

सेठ पूर्णिमा को किया जाने वाला नियमित दान कर रहा था। भिखारी तो खुश हो गया। उसने सोचा, नगर सेठ के दर्शन और उनसे मिलने वाले दान से उसका कई दिनों का काम हो जाएगा।

जैसे-जैसे सेठ की सवारी निकट आती गई, भिखारी की कल्पना और उत्तेजना भी बढ़ती गई। सेठ का रथ पास रूका और वह उतरकर उसके पास पहुंचे। अब तो भिखारी न जाने क्या-क्या पाने के सपने देखने लगा।

लेकिन यह क्या, बजाय भिखारी को भीख देने के सेठ ने उलटे अपनी कीमती चादर उसके सामने फैला दी। सेठ ने भिखारी से ही कुछ दान मांग लिया।

वह रोज लोगों के सामने झोली फैलाता है। आज उसके सामने किसी ने झोली फैला दी वह भी नगर के सबसे बड़े सेठ ने। भिखारी को समझ नहीं आ रहा था क्या करे। अभी वह सोच ही रहा था कि सेठ ने फिर से याचना की।

भिखारी धर्मसंकट में था। कुछ न कुछ तो देना ही पड़ता। कहां वह मोटा दान पाने की आस लगाए बैठा था, कहां अपने ही माल में से कुछ निकलने वाला था। उसका मन खट्टा हो गया।

भिखारी ने निराश मन से अपनी झोली में हाथ डाला। हमेशा दूसरों से लेने वाला मन आज देने को राजी नहीं हो रहा था।

हमेशा लेने की नीयत रखने वाला क्या देता। जैसे-तैसे करके उसने झोली से जौ के दो दाने निकाले और सेठ की चादर में डाल दिया। सेठ उसे लेकर मुस्कुराता हुआ चला गया।

हालांकि उस दिन भिखारी को रोज से अधिक भीख मिली थी। फिर भी उसने जौ के जो दो दाने अपने पास से गंवाए थे, उसका मलाल सारे दिन रहा।

बार-बार यही ख्याल आता कि न जाने क्या हुआ सेठ को देने के बजाय लेकर ही चला गया।

आज सभी भिखारियों को दान दे रहे हैं वह उलटा ले रहा है। कैसा जमाना आ गया है। अच्छा हुआ मैंने जौ के दो ही दाने दिए। मुठ्ठीभर नहीं दिया।यही सब सोचता हुआ वह घर पहुंचा। शाम को जब उसने झोली पलटी तो आश्चर्य की सीमा न रही। जो जौ वह अपने साथ लेकर गया था उसके दो दाने सोने के हो गए थे।

जौ के दाने सोने के कैसे हो गए और हुए भी तो केवल दो ही दाने क्यों, पूरे ही हो जाते तो कंगाली मिट जाती। वह यह सोच ही रखा था कि उसका माथा ठनका। कहीं यह सेठ को दिए दो दानों का प्रभाव तो नहीं है।

भिखारी को समझ में आया कि यह दान की ही महिमा के कारण हुआ है।

वह पछताया कि काश! उस सेठ को और बहुत सारी जौ दे दी होती लेकिन नहीं दे सका क्योंकि देने की आदत जो नहीं थी।

हम ईश्वर से हमेशा पाने की इच्छा रखते हैं, क्या कभी सोचा है कि कुछ दिया भी जा सकता है। इंसान की क्या औकात कि वह ईश्वर को कुछ दे सके। यदि वह उस गरीब का कुछ भला कर दे जो ईश्वर का दंड झेलता कष्टमय जीवन बिता रहा है, वही ईश्वर को देना कहा जाता है।

देने से कोई छोटा नहीं होता। सुपात्र को देने की नीयत रखें। कुपात्र को दिया दान व्यर्थ जाता है। जिनका पेट भरा है उनके मुँह में रसगुल्ले ठूंसने से बेहतर है भूखे को एक बिस्किट का पैकेट पकड़ा दें।

दान से आपके पूर्वजन्मों के दोष कटते हैं। जो ग्रह खराब हो उसका दान करने से उस ग्रह के दोष आपसे निकलते जाते हैं। यदि आप परेशानियों से लगातार जूझ रहे हैं तो सेवा कीजिए जरूरतमंदों की। धन का ही दान हो जरूरी नहीं।

वाणी का दान भी सुंदर दान है। किसी से मधुर वचन कहना वाणी दान कहलाता है। बीमार की सेवा करना, रक्तदान, जलदान और अन्नदान सर्वश्रेष्ठ दान हैं।

दान की महिमा निराली है। जरूरतमंद के हाथ पसारने पर भी उसे दुत्कार देने की आदत भगवान को पसंद नहीं। परमार्थी जीव भगवान की पसंद सूची में हैं।

भगवान विविध प्रकार से हमें परखते हैं। तुलसीदास को हनुमानजी ने कोढ़ी के रूप में पहली बार दर्शन दिया था। कण-कण में भगवान की बात कही जाती है। इसे सिर्फ जुमले या कहावत के रूप में नहीं देखना चाहिए।

लोगों में एक आदत होती है किसी भी बात के लिए मना कर देने की। बेशक हममें मना करने की आदत होनी चाहिए लेकिन किस बात के लिए मना करने की आदत हो, इसकी परख होनी चाहिए। हर बात के लिए “ना” कहने वाला बहुत ज्यादा नकारात्मक विचारों से भर जाता है।

मना करिए ऐसी चीजों के लिए जो आपके और सामने वाले दोनों के लिए नुकसानदेह हो। देने वाला बड़ा होता है। माँगने वाला तो हमेशा छोटा होता ही है। उसकी नजर झुकी रहती है आपके सामने! दया की याचना करता है आपसे, बिलकुल वैसे ही जैसे हम ईश्वर के सामने कर रहे होते हैं। अगर समर्थवान हैं तो याचक को कुछ न कुछ जरूर दान कर दें।

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