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एक संत महात्मा श्यामदासजी रात्रि के समय में ‘श्रीराम’ नाम का अजपाजाप करते हुए अपनी मस्ती में चले जा रहे थे। जाप करते हुए वे एक गहन जंगल से गुज़र रहे थे। विरक्त होने के कारण वे महात्मा बार-बार देशाटन करते रहते थे। वे किसी एक स्थान में अधिक समय नहीं रहते थे। वे इश्वर नाम प्रेमी थे। इस लिये दिन-रात उनके मुख से राम नाम जप चलता रहता था।
स्वयं राम नाम का अजपाजाप करते तथा औरों को भी उसी मार्ग पर चलाते। श्यामदासजी गहन जंगल में मार्ग भूल गये थे पर अपनी मस्ती में चले जा रहे थे कि जहाँ राम ले चले वहाँ….। दूर अँधेरे के बीच में बहुत सी दीपमालाएँ प्रकाशित थीं। महात्मा जी उसी दिशा की ओर चलने लगे।
निकट पहुँचते ही देखा कि वटवृक्ष के पास अनेक प्रकार के वाद्ययंत्र बज रहे हैं, नाच -गान और शराब की महफ़िल जमी है। कई स्त्री पुरुष साथ में नाचते-कूदते-हँसते तथा औरों को हँसा रहे हैं। उन्हें महसूस हुआ कि वे मनुष्य नहीं प्रेतात्मा हैं। श्यामदासजी को देखकर एक प्रेत ने उनका हाथ पकड़कर कहाः ओ मनुष्य ! हमारे राजा तुझे बुलाते हैं, चल। वे मस्तभाव से राजा के पास गये जो सिंहासन पर बैठा था। वहाँ राजा के इर्द-गिर्द कुछ प्रेत खड़े थे।
प्रेतराज ने कहाः तुम इस ओर क्यों आये? हमारी मंडली आज मदमस्त हुई है, इस बात का तुमने विचार नहीं किया? तुम्हें मौत का डर नहीं है?
अट्टहास करते हुए महात्मा श्यामदासजी बोलेः मौत का डर? और मुझे? राजन् ! जिसे जीने का मोह हो उसे मौत का डर होता हैं। हम साधु लोग तो मौत को आनंद का विषय मानते हैं। यह तो देहपरिवर्तन हैं जो प्रारब्धकर्म के बिना किसी से हो नहीं सकता।
प्रेतराजः तुम जानते हो हम कौन हैं?
महात्माजीः मैं अनुमान करता हूँ कि आप प्रेतात्मा हो।
प्रेतराजः तुम जानते हो, लोग समाज हमारे नाम से काँपता हैं।
महात्माजीः प्रेतराज ! मुझे मनुष्य में गिनने की ग़लती मत करना। हम ज़िन्दा दिखते हुए भी जीने की इच्छा से रहित, मृततुल्य हैं। यदि ज़िन्दा मानो तो भी आप हमें मार नहीं सकते। जीवन-मरण कर्माधीन हैं। मैं एक प्रश्न पूछ सकता हूँ?
महात्मा की निर्भयता देखकर प्रेतों के राजा को आश्चर्य हुआ कि प्रेत का नाम सुनते ही मर जाने वाले मनुष्यों में एक इतनी निर्भयता से बात कर रहा हैं। सचमुच, ऐसे मनुष्य से बात करने में कोई हरकत नहीं।
प्रेतराज बोलाः पूछो, क्या प्रश्न है?
महात्माजीः प्रेतराज ! आज यहाँ आनंदोत्सव क्यों मनाया जा रहा है?
प्रेतराजः मेरी इकलौती कन्या, योग्य पति न मिलने के कारण अब तक कुआँरी हैं। लेकिन अब योग्य जमाई मिलने की संभावना हैं। कल उसकी शादी हैं इसलिए यह उत्सव मनाया जा रहा हैं।
महात्मा (हँसते हुए): तुम्हारा जमाई कहाँ हैं? मैं उसे देखना चाहता हूँ।”
प्रेतराजः जीने की इच्छा के मोह के त्याग करने वाले महात्मा ! अभी तो वह हमारे पद (प्रेतयोनी) को प्राप्त नहीं हुआ हैं। वह इस जंगल के किनारे एक गाँव के श्रीमंत (धनवान) का पुत्र है। महादुराचारी होने के कारण वह इसवक्त भयानक रोग से पीड़ित है। कल संध्या के पहले उसकी मौत होगी। फिर उसकी शादी मेरी कन्या से होगी। इस लिये रात भर गीत-नृत्य और मद्यपान करके हम आनंदोत्सव मनायेंगे। श्यामदासजी वहाँ से विदा होकर श्रीराम नाम का अजपाजाप करते हुए जंगल के किनारे के गाँव में पहुँचे। उस समय सुबह हो चुकी थी।
एक ग्रामीण से महात्मा नें पूछा “इस गाँव में कोई श्रीमान् का बेटा बीमार हैं?”
ग्रामीणः हाँ, महाराज ! नवलशा सेठ का बेटा सांकलचंद एक वर्ष से रोगग्रस्त हैं। बहुत उपचार किये पर उसका रोग ठीक नहीं होता।
महात्माः क्या वे जैन धर्म पालते हैं?
ग्रामीणः उनके पूर्वज जैन थे किंतु भाटिया के साथ व्यापार करते हुए अब वे वैष्णव हुए हैं।
महात्मा नवलशा सेठ के घर पहुंचे सांकलचंद की हालत गंभीर थी। अन्तिम घड़ियाँ थीं फिर भी महात्मा को देखकर माता-पिता को आशा की किरण दिखी। उन्होंने महात्मा का स्वागत किया। सेठपुत्र के पलंग के निकट आकर महात्मा रामनाम की माला जपने लगे। दोपहर होते-होते लोगों का आना-जाना बढ़ने लगा।
महात्मा: क्यों, सांकलचंद ! अब तो ठीक हो?
सांकलचंद ने आँखें खोलते ही अपने सामने एक प्रतापी संत को देखा तो रो पड़ा। बोला “बापजी ! आप मेरा अंत सुधारने के लिए पधारे हो। मैंने बहुत पाप किये हैं। भगवान के दरबार में क्या मुँह दिखाऊँगा? फिर भी आप जैसे संत के दर्शन हुए हैं, यह मेरे लिए शुभ संकेत हैं।”
इतना बोलते ही उसकी साँस फूलने लगी, वह खाँसने लगा।
“बेटा ! निराश न हो भगवान राम पतित पावन है। तेरी यह अन्तिम घड़ी है। अब काल से डरने का कोई कारण नहीं। ख़ूब शांति से चित्तवृत्ति के तमाम वेग को रोककर श्रीराम नाम के जप में मन को लगा दे। अजपाजाप में लग जा।
शास्त्र कहते हैं-
चरितम् रघुनाथस्य शतकोटिम् प्रविस्तरम्।
एकैकम् अक्षरम् पूण्या महापातक नाशनम्।।
अर्थातः सौ करोड़ शब्दों में भगवान राम के गुण गाये गये हैं। उसका एक-एक अक्षर ब्रह्महत्या आदि महापापों का नाश करने में समर्थ हैं।
दिन ढलते ही सांकलचंद की बीमारी बढ़ने लगी। वैद्य-हकीम बुलाये गये। हीरा भस्म आदि क़ीमती औषधियाँ दी गयीं। किंतु अंतिम समय आ गया यह जानकर महात्माजी ने थोड़ा नीचे झुककर उसके कान में रामनाम लेने की याद दिलायी। राम बोलते ही उसके प्राण पखेरू उड़ गये। लोगों ने रोना शुरु कर दिया। शमशान यात्रा की तैयारियाँ होने लगीं। मौक़ा पाकर महात्माजी वहाँ से चल दिये।
नदी तट पर आकर स्नान करके नामस्मरण करते हुए वहाँ से रवाना हुए। शाम ढल चुकी थी। फिर वे मध्यरात्रि के समय जंगल में उसी वटवृक्ष के पास पहुँचे। प्रेत समाज उपस्थित था। प्रेतराज सिंहासन पर हताश होकर बैठे थे। आज गीत, नृत्य, हास्य कुछ न था। चारों ओर करुण आक्रंद हो रहा था, सब प्रेत रो रहे थे।
महात्मा ने पूछा “प्रेतराज ! कल तो यहाँ आनंदोत्सव था, आज शोक-समुद्र लहरा रहा हैं। क्या कुछ अहित हुआ हैं?”
प्रेतराजः हाँ भाई ! इसीलिए रो रहे हैं। हमारा सत्यानाश हो गया। मेरी बेटी की आज शादी होने वाली थी। अब वह कुँआरी रह जायेगी
महात्मा: प्रेतराज ! तुम्हारा जमाई तो आज मर गया हैं। फिर तुम्हारी बेटी कुँआरी क्यों रही?
प्रेतराज ने चिढ़कर कहाः तेरे पाप से। मैं ही मूर्ख हूँ कि मैंने कल तुझे सब बता दिया। तूने हमारा सत्यानाश कर दिया।
महात्मा ने नम्रभाव से कहाः मैंने आपका अहित किया यह मुझे समझ में नहीं आता। क्षमा करना, मुझे मेरी भूल बताओगे तो मैं दुबारा नहीं करूँगा।
प्रेतराज ने जलते हृदय से कहाः यहाँ से जाकर तूने मरने वाले को नाम स्मरण का मार्ग बताया और अंत समय भी राम नाम कहलवाया। इससे उसका उद्धार हो गया और मेरी बेटी कुँआरी रह गयी।
महात्माजीः क्या? सिर्फ़ एक बार नाम जप लेने से वह प्रेतयोनि से छूट गया? आप सच कहते हो?
प्रेतराजः हाँ भाई ! जो मनुष्य राम नामजप करता हैं वह राम नामजप के प्रताप से कभी हमारी योनि को प्राप्त नहीं होता। भगवन्नाम जप में नरकोद्धारिणी शक्ति हैं।
प्रेत के द्वारा रामनाम का यह प्रताप सुनकर महात्माजी प्रेमाश्रु बहाते हुए भाव समाधि में लीन हो गये। उनकी आँखे खुलीं तब वहाँ प्रेत-समाज नहीं था, बाल सूर्य की सुनहरी किरणें वटवृक्ष को शोभायमान कर रही थीं।